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( ५. ) ब्राह्मणों में त्याग, तप और संयम को ज्यादा महत्त्व दिया जाता रहा है। त्याग-तप से हीन ब्राह्मण को हीन दृष्टि से देखा जाता रहा है। यही नहीं, ब्राह्मण सामाजिक परम्परात्रों का, समाज के हित और सुख का सदैव से संरक्षक भी माना जाता रहा है। उसने समय समय पर अपने को समाज का संरक्षक सिद्ध भी किया है। इसीलिए वह परम्परा का पोषक और रूढ़िवादी भी रहा है । परशुराम सर्वक्षत्रान्तक हुए, उन्होंने हैहयों का विरोध किया; पर त्याग और तप को नहीं छोड़ा। ब्राह्मणों को सामाजिक परम्परा का संरक्षक होने की प्रेरणा वेदों से मिली और वेदों ने संन्यास को श्रादर्श नहीं माना-क्योंकि वेद समाज को गृहस्थ के जीवन में मानते थे। पर गृहस्थ जीवन को ब्राह्मणों ने संयम में बाँधा । यही कारण है कि उपनिषदों का आन्दोलन ब्राह्मण कर्मकाण्ड के विरोध में होकर भी वेदों से बाहर नहीं जा सका। श्रमण परम्परा की कमजोरी
जैन धर्म बहुत पुराना धर्म था । वह वेद विरोधी भी था। पर उसमें तपस्या पर ज्यादा जोर दिया गया था। महावीर ने उसमें कुछ संस्कार किया । पर फिर भी तपस्या को और ब्रह्मचर्य को विशेष महत्त्व दिया । बुद्ध का बौद्ध धर्म नया था। उसकी पुरानी परम्परा भी नहीं थी। वह मध्यम मार्ग भी था। उसमें उतना तप पर जोर भी नहीं दिया गया था। इसके अलावा बौद्ध और जैन दोनों धर्मो ने जन आन्दोलन का रूप भी धारण कर लिया। बौद्धों और जैनों दोनों धर्मों के नेता यद्यपि संस्कारसम्पन्न और कुलीन थे। पर दोनों का बल उनका संघ-बल था और दोनों संघों में शद्रों तथा दासों की संख्या कम न थी। इन शूद्रों और दासों ने आध्यात्मिक भावना से ही जैन और बौद्ध संघों में प्रवेश नहीं किया था। गुलामी, दासता और सांसारिक कटों से बचने के लिये संघ में प्रवेश किया था। क्योंकि भिक्षु हो जाने के बाद दासता और कर्जे से मुक्ति मिल जाती थी। स्व., म० म. पं० हरप्रसाद शास्त्री ने