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भारतवर्ष की सीमा खींची थी, जो खून की नदी में तैरता था, जिसने जीवन में सभी सुख-ऐश्वर्य का भोग किया, वह अन्त में हिंसक हो गया। उसके चारो ओर बुद्ध और महावीर की अहिंसा का वातावरण था । उसके जन्मस्थान मोरिय गणतन्त्र में महावीर को शिक्षा प्रतिष्ठित हो चुकी थी । शायद किशोरावस्था में उसके मन पर जैन धर्म का प्रभाव पड़ा था। कहा जाता है कि उसके राज्यकाल में मगध में घोर अकाल पड़ा - शायद उसे रोकने के प्रयत्न वह असफल रहा। इसके बाद वह जैनाचार्य भद्रबाहु के साथ मैसूर की ओर चला गया, जहाँ उसने अनशन करके शरीर का त्याग किया । इतिहासकार चाहे इस पर दो राय रखें, पर यह मृत्यु निश्चय ही महावीर चन्द्रगुप्त के अनुकूल थी । जवानी में मृत्यु से आँख मिचौनी का खेल खेला; मृत्यु को सदा सहचरी समझा, उसने अन्त में मृत्यु को अपने निकट बैठाकर, प्रसन्नता पूर्वक उस अनुपम सुन्दरी को तृप्त किया ।
बिन्दुसार
चन्द्रगुप्त के बाद उसका पुत्र विन्दुसार २६७ ई० पू० में मगध साम्राज्य के सिंहासन पर बैठा । चन्द्रगुप्त के बाद भी चाणक्य जीवित था और कुछ काल तक उसीने विन्दुसार के साम्राज्य का नीति-संचालन किया । विन्दुसार की राजनीति भी चाणक्य के सिद्धान्तों पर आधारित थी। उसने दक्षिणापथ के उन राज्यों को जीतकर मगध साम्राज्य में मिलाया, जो चन्द्रगुप्त के अभियान में बच गये थे । पर फिर भी उसने चन्द्रगुप्त जैसा कोई महान कार्य नहीं किया। उसके काल में भारतीय साम्राज्य की नीव और भी गहरी हो गयी ।
विजेता अशोक
विन्दुसार की मृत्यु के बाद कुछ समय तक मगध साम्राज्य में अव्यवस्था थी। उसके दो पुत्रों-सुत्रीम और
शोक में साम्राज्य के