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अब विचारणीय प्रश्न यह है कि बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार पालि में मगध की मूल भाषा का रूप है। और जैन अनुश्रुति अर्धमागधी को मगध की भाषा के नजदीक मानती है। दोनों अनुश्रुतियाँ सत्य हो नहीं सकतीं। अतः सत्य क्या है ? जैन अनुश्रुति के अनुसार महावीर के शिष्य सुधर्म ने महावीर के उपदेशों को उसी प्रकार स्मरण कर लिया था, जिस प्रकार महावीर ने कहा था। सुधर्म के बाद जम्बुस्वामी प्रभव और स्वयंभव ने क्रम से जिन उपदेशों की रक्षा की। यह बात पूर्व नन्द और नव नन्द युग तक की हुई। इसके बाद पुनः जैन अनुश्रुति के अनुसार महावीर-निर्वाण के करीब १५० वर्ष बाद पाटलिपुत्र में जैनागमों को व्यवस्थित रूप देने के लिये जैन विद्वान् साधुत्रों की प्रथम वाचना हुई । इस प्रथम वाचना में एकत्रित हुए श्रमणों ने एक दूसरे से पूछ-पूछ कर ११ अङ्गों को व्यवस्थित किया। किन्तु देखा गया कि उनमें से किसी को भी संपूर्ण दृष्टिवाद का पता न था। उस समय दृष्टिवाद के ज्ञाता श्राचार्य भद्रबाहु थे। किन्तु उन्होंने १२ वर्ष के लिये विशेष प्रकार के योगमार्ग का अवलंबन किया था और वे नेपाल में थे। इसलिए जैन साधु संघ ने स्थूलभद्र को कई साधुत्रों के साथ दृष्टिवाद की वाचना के लिये भद्रबाहु के पास भेजा। स्थूलभद्र ने दश पूर्व सीखने के बाद अपनी श्रुतलब्धि ऋद्धि का प्रयोग किया। इसका पता जब भद्रबाहु को चला तब उन्होंने अध्यापन करना छोड़ दिया। स्थूलभद्र के बहुत समझाने पर राजी भी हुए तो शेष चार की अनुज्ञा नहीं दी। यही नहीं यह भी कहा कि तुमको मैं शेष चार पूर्व की सूत्र वाचना देता हूँ, किन्तु तुम इसे दूसरों को मत पढ़ाना । भद्रबाहु को चन्द्रगुप्त मौर्य का समकालीन कहा जाता है।
स्थूलभद्र को भद्रबाहु से जो कुछ प्राप्त हुआ, वह मौखिक था। स्थूलभद्र ने भी उसे मौखिक ही रखा। स्थूलभद्र की मृत्यु महावीरनिर्वाण के २१५ वर्ष बाद हुई । अर्थात् ई० पू० ३१२ तक जैनागमों