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पर अशोक महान था—महान धार्मिक हो नहीं, योद्धा भी, नीतिश भी। उसने कलिंगविजय के अवसर पर समझ लिया कि अब सैनिक नीति ठीक नहीं । सम्भवतः इसलिए भी उसने मौर्यों की सैनिक नीति को क्षमा नीति में बदल दिया। और जब तक अशोक जीवित था, उसकी क्षमा नीति से साम्राज्य के पाये खिसके नहीं। इससे भी सिद्ध है कि अशोक तक क्षमा नीति बुरी नहीं थी। पर बुरा था अशोक का राष्ट्र-धर्म की सीमा तक बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लेना। यह ठीक है कि अशोक मगध के वातावरण से बाध्य थे। बिम्बिसार से लेकर अशोक तक मगध में जैन अथवा बौद्ध प्रभाब छाया था। सभी राजात्रों पर एक न एक धर्म का प्रभाव था। पर यह भी सच है कि किसी ने तलवार अलग नहीं रखी थी। अजातशत्रु ने तो विजय किये थे। किसी ने राष्ट्रीय ममता और शत्रुद्वषी भावना को शिथिल नहीं पड़ने दिया था। यही कारण था कि जैन और बौद्ध धर्म की अहिंसा के प्रभाव के रहते हुए भी मगध साम्राज्य बढ़ता गया। पर सम्राट अशोक ने तो उस समय सम्पूर्ण रूप से तलवार अलग कर दी, जब साम्राज्य का एक मात्र प्राधार ही दण्ड माना जाता था। सम्राट चन्द्रगुप्त ने चाहे जैन धर्म की साधना के अनुकूल अनशन करके शरीर न भी त्याग हो पर इतना तो मानना ही पड़ेगा कि उस पर भी जैन धर्म का प्रभाव था। पर उसने जैन धर्म को व्यक्तिगत रूप से निभाया, उसे राष्ट्रधर्म नहीं बना दिया। किन्तु सम्राट अशोक ने तो बौद्ध धर्म को राष्ट्रधर्म की सीमा तक चढ़ा दिया। साम्राज्य की एक मात्र शक्ति तलवार को अलग कर दिया। यह ठीक है कि अशोक ने अपने काल तक मगध साम्राज्य को अक्षुण्ण रखा। पर अहिंसा के कारण यह नहीं हुआ; बल्कि यह इसलिए हुआ कि अशोक चन्द्रगुप्त और बिन्दुसार के बाद की कड़ी था—जीवन में युद्धविजेता और शक्ति का प्रतीक था। उसके काल तक शक्ति की धाक थी। पर उसके मरते ही मौर्य साम्राज्य के तारतार बिखर गये।