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उपयोग धर्म के क्षेत्र में किया । इस सम्प्रदायवादी राजा ने धर्म और पुण्य के अर्जन में सौजन्य तथा स्नेह का प्रयोग कम और तलवार का प्रयोग अधिक किया । सौराष्ट्र, गुजरात और पश्चिमी भारत की भूमि उसने रक्त से लाल कर दी । प्रजा त्राहि त्राहि कर उठी । इसी शालिशुक के काल में सुभगसेन पश्चिमोत्तर प्रदेश ( गान्धार) में मगध से अलग स्वतंत्र शासक हो गया। इसी के काल में ऐंटीयोकस ने गान्धार पर आक्रमण किया और सुभगसेन ने उसे श्रात्मसमर्पण किया । पर ऐंटीयोकस किसी कारण भारत की ओर न बढ़कर अपने देश सीरिया लौट गया । किन्तु उसके हल्के से आक्रमण ने संसार पर प्रकट कर दिया कि अब भारत में न तो चन्द्रगुप्त की तलवार है और न चाणक्य की मेधा । परिणामस्वरूप देश पर आक्रमण हुये गंगा, यमुना के द्वाबे तक को विदेशियों ने कुचला - रौंदा ।
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इस आक्रमण की धूलि को सरयू के तट पर बैठे एक वैय्याकरण की भेघा ने देखा, परखा, और वह राजनीति के क्षेत्र में उतर पड़ा । इस विदेशी आक्रमण को रोकने के लिये एक निरा तरुण सेनापति बढ़ा, लड़ा, घायल हुआ और मगध की दुर्बल नीति के कारण खून का घूंट पीकर रह गया । पर आगे के भारत की कहानी, इसी सेनापति की कहानी है, जिसका नाम पुष्यमित्र शुंग था । पुष्यमित्र शुंग ब्राह्मण था । श्रष्टाध्यायी के रचयिता प्रसिद्ध वैय्याकरण पाणिनि, शुंगों को भारद्वाज गोत्र का ब्राह्मणा बताते हैं । आश्वलायन श्रौतसूत्र में शुंग को श्राचार्य कहा गया है । पुष्यमित्र शुंग भारद्वाज गोत्र का ब्राह्मण था । ब्राह्मण परम्परा के पुनरावर्तन के कारण
भारत के अति प्राचीन इतिहास में भी ब्राह्मण और क्षत्रिय संघर्ष दृष्टिगोचर होता है । वशिष्ठ- विश्वामित्र, परशुराम कार्तवीर्यार्जुन, उपनिषदों की परम्परा और आगे जैनों - बौद्धों की परम्परा । यह भी सम्भव है कि यह परम्परा और भी गहरी हो । पर यह भी सच है कि साधारण रूप से
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