________________
कायवध] ३४०, जैन-लक्षणावली
[कायस्वभाव नां मध्ये अन्यतमवर्गणालम्बनापेक्षयात्मप्रदेशचलनं सं. श्रा. ७-५०)। परिस्पन्दनं परिस्फुरणं काययोगः । (त. वृत्ति श्रुत. १ वस्त्र, आभरण और शरीरसंस्कार से रहित;
यथाजात मल को धारण करने वाली एवं अंगविकार १वीर्यारतराय के क्षयोपशम के सदभाव में औदा- से रहित जो सर्वत्र यत्नपूर्ण प्रवृत्ति होती है। उसे रिक व औदारिकमिश्र आदि सात प्रकार की वर्ग- कायशद्धि कहते हैं। इसके होते हए न अपने से णामों में किसी एक का पालम्बन लेकर जो प्रात्म- किसी अन्य को भय होता है और न स्वयं को प्रदेशों का परिस्पन्द हुआ करता है उसे काययोग किसी अन्य से भय होता है । कहते हैं।
कायसंयम-१. कायसंयमो णाम आवस्सगाइजोगे कायवध-xxx कायवधे पृथिव्याधुपमर्दे x मोत्तुं सुसमाहियपाणि-पादस्स कुम्मो इव गुत्तिदियस्स XX । (श्रा. प्र.टी. ३४६)
चिट्ठमाणस्स संजमो भवई । (दशवै. चू. पृ. २१)। पथिवीकायिकादि जीवों के पीड़ित करने को काय- २. कायसंयम इति। धावन-वल्गन-प्लवनादिनिवृत्तिः, वध कहते हैं।
शुभक्रियासु च प्रवृत्तिः । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६, कायविनय-१. नी सिज्ज गइं ठाणं नीयं च पृ. १९८; योगशा. स्वो. विव. ४-६३)। प्रासणाणि अ। नीनं च पाये वंदिज्जा नीनं कुज्जा १. आवश्यक क्रियाओं को छोड़कर अन्य कार्यों के . अ अंजलि ॥ (दशवै. ६,२, १७)। २. तत्थ काय- करने में कछुए के समान इन्द्रियों को संकुचित कर -विणो नाम तेसि चेव पायरियादीणं अद्धाणपरि- --स्वाधीन करके-हाथ-पांवों को शान्त रखने - स्संताण वा सीसाउ प्रारब्भ जाव पादतला ताव वाले के संयम को कायसंयम कहा जाता है। परमादरेण विस्सामणं । (दशवै. चू. पृ. २७)। कायस्थिति-१. कायस्थितिरेककायापरित्यागेन १ प्राचार्य प्रादि की अपेक्षा नीची शय्या पर सोना, नानाभव ग्रहणविषया। (त. वा. ३, ३६, ६)। उनके पीछे बहुत दूर न रहकर अनुद्धततापूर्वक २. तत्र कायस्थितिरिति कः शब्दार्थः ? उच्यतेगमन करना, उनके स्थान की अपेक्षा नीचे स्थान ___ काय इह पर्याय गृह्यते, काय इव काय इत्युपमानात् । . पर स्थित होना, उनकी अनुज्ञापूर्वक हीन प्रासन स च द्विधा-सामान्यरूपो विशेषरूपश्च । तत्र पर बैठना, सिर झुकाकर उनके चरणों की वन्दना सामान्यरूपो निविशेषणो जीवत्वलक्षणो विशेषरूपो करना तथा प्रश्न प्रादि के समय शरीर को नम्री- नरयिकत्वादिलक्षणः, तस्य स्थितिरबस्थानं कायभूत रखना, इस प्रकार के नम्रतापूर्ण व्यवहार को स्थितिः । विमुक्तं भवति ? सामान्यरूपेण विशेषकायविनय कहा जाता है।
रूपेण वा पर्यायेणादिष्टस्य जीवस्य यदव्यवच्छेदेन कायव्युत्सर्ग-देखो कायोत्सर्ग ।
भवनं सा कायस्थितिः। (प्रज्ञाप. मलय. व. १७, कायशुद्धि-१. कायशुद्धिनिरावरणाभरणा निरस्त. २२६, पृ. ३७५)। संस्कारा यथाजातमलधारिणी निराकृतांगविकारा १एक काय को-औदारिक प्रादि शरीर कोसर्वत्र प्रयतवृत्तिः प्रशमसुखं मूर्तमिव प्रदर्शयन्तीति न छोड़ कर उसके रहने तक नाना भवों को प्रहण तस्यां सत्यां न स्वतोऽन्यस्य भयमुपजायते नाप्यन्य- करते हुए जितना काल वीतता है, उसका नाम • तस्तस्य । (त. वा. ६, ६, १६; त. श्लो. ६-६; कायस्थिति है। २ काय शब्द से यहां पर्याय की -चा. सा. पृ. ३४)। २. विश्रम्भोप [त्पा] दिका लो- ग्रहण किया गया है। वह दो प्रकार की हैकस्याऽस्तसंस्कारसंहतिः। कायशुद्धिः क्षमामूर्तिभूतेवा- सामान्यरूप और विशेषरूप । नारकादि विशेषण से ऽऽभाति नि:स्पृहा ॥ विरागता-लतोद्भूतिभूभिर्भीति- रहित जीव की जीवत्वरूप पर्याय सामान्य और विवजिता । जातरूपमनोहारिण्येषां भषा तप:श्रियः। उक्त विशेषण से सहित नारक आदि रूप विशेष (प्राचा. सा. ८, १०-११)। ३. कायशुद्धिः सर्वत्र पर्याय है। उक्त दोनों में विवक्षित पर्याय का जब संवृताचारतया प्रवर्तनम् । (सा. ध. स्वो. टी. ५, तक दिच्छेद नहीं होता है उतने काल का नाम ४५)। ४. हस्त-पाद-शिरःकम्पावष्टम्भादिर्न यत्र कायस्थिति है। वै । कायदोषो भवेदेषा कायशद्धिरिहागमे ।। (धर्म- कायस्वभाव-१. कायस्वभावोऽनित्यता दुःखहेतु
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org