Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी की पौराणिक कथाएँ
ऋषभस्वामी के जन्मोत्सव की कथा के क्रम में ही इक्ष्वाकु वंश और अकालमृत्यु की उत्पत्ि की जो मिथक कथा कही गई है, उसकी अपनी रोचकता है: जिनमाता मरुदेवी को स्वप्न में वृषभ के दर्शन हुए थे, इसलिए माता-पिता ने तीर्थंकर का नाम 'ऋषभ' रखा। भगवान् जब साल भर के हुए, तब इन्द्र वामनरूप धरकर ईख का बोझ लिये नाभिकुमार के समीप आये । भगवान् ने त्रिविध ज्ञान (मति, श्रुत, अवधि) के प्रभाव से देवेन्द्र का अभिप्राय जान लिया और उन्होंने प्रशस्त लक्षणोंवाला अपना दायाँ हाथ फैला दिया । सन्तुष्ट होकर इन्द्र ने पूछा : “क्या इक्षु (ईख) खायेंगे ?” चूँकि भगवान् ने ईख की अभिलाषा प्रदर्शित की, इसलिए उनके वंश का नाम 'इक्ष्वाकु वंश' हो गया ।
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मिथुनधर्म के अनुसार, मरुदेवी की सहजात कन्या सुमंगला के साथ ऋषभस्वामी बढ़ने लगे । उसी अवधि में, ऋषभस्वामी के नगर में एक और मिथुन उत्पन्न हुआ । जन्म लेते ही मिथुन को तालवृक्ष के नीचे रख दिया गया था। तालफल के गिरने से शिशुयुग्म का लड़का मर गया और लड़की को पालन-पोषण के निमित्त नाभिकुमार (ऋषभस्वामी के पिता) के संरक्षण में दे दिया गया। इस बालिका का नाम सुनन्दा था और शारीरिक सौन्दर्य से यह देवकन्या की भाँति दिपती थी, इसलिए नाभिकुमार ने इसका यत्नपूर्वक पालन-पोषण किया। उसी समय से अकालमृत्यु प्रारम्भ हुई।
मिथकीय चेतना से युक्त उक्त दोनों कथाप्रसंगों में इतिहास और लोकतत्त्व का अद्भु समन्वय है । संघदासगणी ने अपनी उदात्त कल्पना द्वारा ऐतिहासिक एवं सौन्दर्यबोधात्मक सामग्री को लोकतत्त्वों के तानों बानों में बुनकर निजन्धरी का निर्माण किया है, जिसमें ऐतिहासिक चेतना तथा देश एवं काल के अक्षों को परिवर्तित कर दिया गया है । इसीलिए कहा जाता है कि इतिहास मिथों को जन्म देता है ।
'वसुदेवहिण्डी' में इस प्रकार की मिथक कथाओं का बाहुल्य है। विशेषकर तीर्थंकरों के चरित-चित्रण में विन्यस्त मिथकीय बोध अपनी चरम सीमा का भी अतिक्रमण करता है । मिथकीय चेतना से संवलित 'वसुदेवहिण्डी' की यथानिर्दिष्ट कथाएँ द्रष्टव्य हैं : अथर्वेद (अथर्ववेद) की उत्पत्ति (गन्धर्वत्तालम्भ : पृ. १५१), अनार्य वेदों की उत्पत्ति (सोमश्रीलम्भ: पृ. १८५), अष्टापद तीर्थ की उत्पत्ति (प्रियंगुसुन्दरीलम्भ: पृ. ३०१), आर्यवेदों की उत्पत्ति (सोमश्रीलम्भ: पृ. १८३), कोटिशिला की उत्पत्ति (केतुमतीलम्भ : पृ. ३४८), गणिका की उत्पत्ति (पीठिका: पृ. १०३), धनुर्वेद की उत्पत्ति (पद्मालम्भ : पृ. २०२), नरक का स्वरूप (बन्धुमतीलम्भ: पृ. २७०), परलोक के अस्तित्व की सिद्धि (श्यामाविजयालम्भ : पृ. ११५), पिप्पलाद की उत्पत्ति ( गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १५१), ब्राह्मणों की उत्पत्ति (सोमश्रीलम्भ : पृ. १८२), विष्णुगीत की उत्पत्ति (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १२८), हरिवंश की उत्पत्ति (पद्मावतीलम्भ: पृ. ३५६ ) आदि। इन कथाओं में मिथकीय बोध के समस्त तत्त्व, जैसे पुराण, इतिहास, कविकल्पना, दन्तकथा, कथा, रोमांस, प्रेमाख्यान, रत्यात्मक प्रेम, निजन्धरी, धर्मभावना, कपोल-कल्पना, लोकतत्त्व आदि के विराट् दर्शन होते हैं । इन कथाओं में मिथ की जातीय कल्पना को धार्मिक विश्वसों ने स्वायत्त कर लिया है ।
'वसुदेवहिण्डी' की पौराणिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की मिथक कथाओं में पराप्राकृतिक या अतिप्राकृतिक पात्रों को प्राकृत पात्रों की भूमिका में उतारा गया है, जो जैनकथा की, अलौकिकता से लौकिकता और पुनः अलौकिकता की ओर प्रस्थान की, सहज प्रवृत्ति का द्योतक है। इस प्रकार,