Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा विस्मित हो उठे : “अरे ! यह पुरुष तो महाबलशाली है, जो अकेला होकर भी बहुतों के सामने अड़ा हुआ है !” तब पाण्डुराजा (जरासन्ध) ने कहा: “यह क्षत्रियधर्म नहीं है कि बहुत राजा अकेले एक व्यक्ति से युद्ध करें।" तब सभी राजाओं में एक-एक राजा क्रम से लड़ने लगे।
जरासन्ध की बात को प्रमाण मानकर शत्रुजय नाम का राजा बाण बरसाता हुआ आ पहुँचा। वसुदेव ने फुरती से धनुष से छूटते हुए बाणों को अपने अर्द्धचन्द्र बाणों से काट डाला। उसके भाग जाने पर प्रतिकूल बातें करता हुआ दन्तवक्र आया। वसुदेव ने उस शठ के सिर को मुकुटहीन कर दिया और उसके रथ की ध्वजा काट फेंकी, साथ ही रथ को भी छिन्न-भिन्न कर दिया, जिससे वह विरथ हो गया। तब कालमुख कालमेघ की तरह गरजता हुआ आया। लेकिन, उसे भी वसुदेव ने कुण्ठित कर दिया। उन सब राजाओं को पराजित देखकर जरासन्ध ने वसुदेव के ज्येष्ठ भ्राता समुद्रविजय को आदेश दिया : “आप इसे जीतकर क्षत्रियों की अनुमति से कन्या प्राप्त करें।” समुद्रविजय वसुदेव के सम्मुख आकर बाण छोड़ने लगे। वसुदेव उनपर प्रहार न करके शस्त्रों को केवल काटते रहे। उन्हें रुष्ट जानकर वसुदेव ने पहले से लिखकर रखा गया, अपने नाम से अंकित बाण, वन्दना के निमित्त, उनके पादमूल में अर्पित करने की इच्छा से फेंका। समुद्रगुप्त बाण में अंकित 'वसुदेव' नाम को पढ़कर वास्तविक स्थिति से ज्यों ही अवगत हुए. त्योंही धनुष का परित्याग कर शरत्कालीन कमलहृद की भाँति प्रशान्त हो गये।
वसुदेव अस्त्र छोड़कर बड़े भाई के पास पहुँचे। वसुदेव को अपनी ओर आते देखकर समुद्रविजय बाष्पपूरित नेत्रों के साथ रथ से उतरे और चरणों पर झुकते हुए वसुदेव को उठाकर उन्होंने अपने अँकवार में भर लिया। दोनों मिलकर बहुत देर तक रोते रहे। बहुत दिनों से बिछुड़े हुए वसुदेव के मिलन के समाचार से युद्धभूमि का वीर रस स्नेह-वात्सल्य रस से आप्लावित हो गया। _____ संघदासगणी द्वारा विन्यस्त प्रस्तुत भयानक युद्ध के वर्णन से भी कतिपय प्राचीन युद्ध-नियमों की सूचना मिलती है। सर्वप्रथम उल्लेखनीय तथ्य तो यह है कि प्राचीन योद्धा भयंकर-से-भयंकर यौद्धिक स्थिति में भी अनैतिक या नियमविरुद्ध आचरण नहीं करते थे। प्रतिपक्षी राजा के वध की अपेक्षा उसे पराजित करने का ही आग्रह अधिक रहता था। वध प्रायः उसी राजा का किया जाता था, जो नर न होकर नरपिशाच या नरपशु हुआ करता था। पीठ दिखाकर भाग जानेवाले राजा की अपेक्षा अधीनता स्वीकार कर मैत्री स्थापित करनेवाला राजा अधिक नीतिनिपुण और प्रशंसनीय माना जाता था।
इसके अतिरिक्त, अकेले लड़नेवाले राजा या योद्धा के प्रति सामूहिक आक्रमण करना प्रचलित युद्धनीति के विरुद्ध समझा जाता था। इसीलिए, महाभारत में अकेले अभिमन्यु पर सप्त महारथियों के सम्मिलित आक्रमण को निन्दनीय करार दिया गया था। इसी नियम को ध्यान में रखकर जरासन्ध ने एकाकी लड़ते हुए वसुदेव के साथ स्वयंवर में उपस्थित क्षत्रिय राजाओं को एक-एक करके लड़ने का आदेश दिया था। वस्तुतः, प्रस्तुत युद्ध का संचालन जरासन्ध ही कर रहा था।
प्राचीन युद्धनियम के अनुसार छोटा भाई अपने औरस बड़े भाई के साथ युद्ध करना अनुचित मानता था। इसीलिए, वसुदेव ने अपने अग्रज समुद्रविजय पर बाण का प्रहार न करके अपने नाम से अंकित बाण को उनके चरणों में निवेदित किया था। युद्ध के समय युद्ध करनेवाले राजाओं को उनके मित्रराजा, सहायता के लिए, यान, वाहन, आयुध और सैन्यसहित युद्धभूमि में आ