Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan

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Page 558
________________ ५३८ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा उसपर चरण से प्रहार किया। यहाँ विमलसेना और उसके चरण का कलात्मक सौन्दर्य सरस साहित्यिक भाषा और समासबहुला गौडी शैली में द्रष्टव्य है : “बाहागयलोयणाए य पुन्नसगग्गरहिययाए, ईसिंदंतग्गदट्ठाहराए, तिवलितरंगभंगुरं निडाले भिउंडिं रएऊण अव्वत्तक्खरं भणंतीए, आकंपिउत्तमंगाए, वियण्णकेसहत्थाए, पडंतउक्कायंतकुसुमाए, समोसरंतरत्तंसुयविलग्गतमेहलादामकलावाए; विविहमणिविचित्तमुत्तियाउनजालोव - सोहिएणं, ससद्दरुंदंतनेउररवेणं, अणुपुव्वसुजायअंगुलीदलेणं, कमलदलकोमलेणं, रत्तासोयथवयसन्निभेणं, चंगालत्तयरसोल्लकोववससंजायसेएणं चलणेणं आहओ।” (धम्मिल्लचरिय : पृ. ६५) अर्थात्, क्रुद्ध विमलसेना की आँखों में आँसू आ गये थे, उसका हृदय (कण्ठ) पूरी तरह भर आया था, वह दन्ताय से अपने अधर को हल्के-हल्के काट रही थी, उसके ललाट पर त्रिवली तरंग से भंगुर भृकुटि तनी हुई थी और अव्यक्त शब्दों में वह कुछ भुनभुना रही थी, उसका शिर काँप रहा था और केशपाश (जूड़ा) बिखर गया था, जिससे गूंथे हुए फूल झड़कर नीचे गिर रहे थे और खिसकता हुआ रक्तांशुक करधनी की डोरी से आ लगा था। इस प्रकार के रौद्रशृंगार की मुद्रा में उस विमलसेना ने अपने जिस चरण से धम्मिल्ल पर प्रहार किया, उसमें विविध मणिजटित और मुक्ताजाल से शोभित नूपुर बँधा हुआ था, जो रुनझुन रुनझुन बज रहा था। पैर की अंगुलियों के दल सुन्दर जाति के थे और उनकी संरचना आनुक्रमिक थी, वह पैर कमल-दल के समान कोमल था और रक्ताशोक के पुष्पगुच्छ की तरह प्रतीत होता था, वह चरण सुन्दर अक्त रस से स्वत: आर्द्र था, फिर भी क्रोधवश स्वेदाक्त हो उठा था । धम्मिल्ल विमलसेना का चरण प्रहार पाकर सन्तोष के साथ मन-ही-मन हँसता हुआ घर से बाहर निकल गया और नागघर में चला गया। वहाँ उसे एक तरुण बालिका दिखाई पड़ी, जिसका सरस नवयौवन अभी फूट ही रहा था। उस तरुणी का सौन्दर्योद्भावक मोहक चित्र भी दर्शनीय है : “नवजोव्वणसालिणी, समुब्धिज्जंतरोमराई, आपूरंतपरिवड्डुमाणपओधरा, तुंगायतेणं नासावंसएणं, अभिनवनीलुप्पलपत्तसच्छहेहिं नयणेहिं बिंबफलसुजायरत्ताधरेणं, सुद्धदंतपंतिएणं, समत्तपुनिमायंदसरिसेणं वयणेणं । " (धम्मिल्लचरिय: पृ. ६५) अर्थात्, वह तरुणी नवयौवनशालिनी थी, उसकी रोमराजि अभी उग ही रही थी, उसका भरा-भरा-सा पयोधर अभी बढ़ ही रहा था, उसकी नाक ( नासिका - वंश) ऊँची और लम्बी (सुतवाँ) थी, नव प्रस्फुटित नीलकमल के दल की भाँति उसकी कजरारी आँखें थीं, सुन्दर जाति बिम्बफल के समान उसके लाल होंठ थे, उसकी दन्तपंक्ति बड़ी स्वच्छ थी और उसका मुँह पूर्णिमा के पूर्णचन्द्र की तरह सुन्दर था । कथाकार द्वारा वर्णित रुक्मिणी के नखशिख का सौन्दर्य भी बड़ा उदात्त है । रुक्मिणी के सम्बन्ध में नारद ने कृष्ण से कहा था कि उनके विचार में कुण्डिनपुर की रुक्मिणी के सौन्दर्य की द्वितीयता नहीं है। नारद के मुख से कथाकार के शब्दों में : “सा सहस्सरस्सिरंजियसयवत्तकंतवयणा, वयणकमलनालभूयचउरंगुलप्पमाणकंधरा, - सुवट्टित-सिलिट्ठ- संठिय-तणुय- सुकुमाल - सुभलक्खणसणाह-किसलयुज्जल- बाहलतिका,

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