Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी की पौराणिक कथाएँ विक्षेपणी, संवेगिनी और निर्वेदिनी, इन चारों कथाविधाओं के तत्त्व पाये जाते हैं और 'आक्षेपिणी' कथा की व्यापक और सूक्ष्म व्याख्या करने पर उसके साँचे में प्रकीर्ण कथा फिट नहीं बैठती है, फिर भी उसके एकदेशीय लक्षण से प्रकीर्ण को आक्षेप के समानान्तर लिया जा सकता है।
_ 'वसुदेवहिण्डी' की प्रकीर्ण कथाएँ मुख्यत: दो रूपों में परिगुम्फित हैं। ये प्रकीर्ण कथाएँ दो व्यक्तियों के वार्तालाप के क्रम में, कथ्यमान कथावस्तु के समर्थन, निदर्शन या दृष्टान्त के रूप में आई हैं, जिनमें कुछ तो ऐसी हैं, जो बिलकुल स्वतन्त्र एवं केवल दृष्टान्तप्रदीपक हैं और जिस स्थल या प्रसंगबिन्दु पर वे प्रारम्भ होती हैं, उसी बिन्दु पर समाप्त हो जाती हैं और कुछ ऐसी हैं, जो मूलकथा के किसी विशिष्ट पात्र के पूर्वभव-चरित या उसके पूर्वजन्म की स्थिति का वर्तमान जन्म पर व्यापक प्रभाव के प्रदर्शन के लिए गूंथी गई हैं और कथाक्रम को आगे बढ़ाने में भी अपनी पूरी रोचकता और रोमांस के साथ सहायक हुई हैं। कहना न होगा कि संघदासगणी ने प्रकीर्ण कथाओं के माध्यम से भारतीय संस्कृति और ज्ञान-विज्ञान के उत्कर्ष-प्रदर्शन में ततोऽधिक सफलता आयत्त की है, साथ ही कथाशिल्प की दृष्टि से भी वह सौन्दर्यबोध को चरम परिणति पर पहुंचाने में समर्थ हुए हैं। __संघदासगणी ने अपने महाकाव्यात्मक उपन्यास 'वसुदेवहिण्डी' में प्रकीर्ण कथाओं के माध्यम से कथा के कई स्थापत्यों ( तकनीकी विशेषताओं ) की स्थापना की है, जिसका लक्ष्य सम्पूर्ण भावाभिव्यक्ति है । भावाभिव्यक्ति की समस्त प्रक्रिया ही स्थापत्य या तकनीक है । स्थापत्य ही कथा की आधारशिला होती है, जिसपर कथाकार अपनी अनुभूति को अभिव्यक्त करता है-कथा का दिव्य सौध खड़ा करता है। भाव के प्रकाशन की भाषिक प्रक्रिया ही शैली है। स्थापत्य में शैली का सनिवेश तो होता ही है; किन्तु स्थापत्य, डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री के शब्दों में, वह सर्वांगीण प्रक्रिया है, जिसमें अनुभूति और लक्ष्य के साथ कथावस्तु की योजना, चरित्र की अवतारणा, परिवेश की कल्पना एवं भाव की सघनता का यथोचित प्रकाशन किया जाता है।
पाश्चात्य विद्वानों ने कला के क्षेत्र में जिसे स्थापत्य या तकनीक कहा है, उसे भारतीय कलाशास्त्रियों, जैसे भरत, उद्भट, रुद्रट, मम्मट आदि की 'वृत्ति' और 'रीति' के समानान्तर रख सकते हैं या उसे वृत्तियों की रीति कह सकते हैं। 'वसुदेवहिण्डी' की प्रकीर्ण कथाओं के स्थापत्यों की कतिपय विशेषताएँ उल्लेखनीय हैं। ___वसुदेवहिण्डी' की प्रकीर्ण कथाओं की पहली विशेषता उनका प्रश्नोत्तर के रूप में उपस्थापन है। कथा का प्रारम्भ वक्ता-श्रोता के रूप में होता है । 'वसुदेवहिण्डी' चूँकि चरित-कथा है, इसलिए प्राकृत-कथाकारों द्वारा स्वीकृत स्थापत्य-सिद्धान्त के अनुसार, श्रेणिक और महावीर या श्रेणिक और गौतम गणधर में प्रश्नोत्तर होता है, अथवा किसी राजा या रानी या किसी सामान्य पात्रों के प्रश्नों का कथात्मक उत्तर श्रमण मुनि या भिक्षुणियाँ देती हैं, और इस प्रकार मूलकथा विकसित होती चलती है। 'वसुदेवहिण्डी' में स्वयं वसुदेव भी प्रश्नकर्ता और उत्तरकर्ता के रूप में प्रदर्शित हुए हैं। इसके अतिरिक्त, श्रेष्ठी या विद्याधरियाँ या वसुदेव की पलियाँ भी प्रश्नों के उत्तर पूर्वकथा या आत्मकथा के रूप में देती हैं। इन सबके अलावा उदाहरण और दृष्टान्त के रूप में भी अनेक प्रकीर्ण कथाएँ कही गई हैं। इस प्रकार, पूरी कथाकृति में प्रश्नोत्तर का जाल बिछा १. हरिभद्र के प्राकृत-कथासाहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन', पृ. १२२