Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भाषिक और साहित्यिक तत्त्व
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'वसुदेवहिण्डी' की भाषा में पुरुष - वक्रता का भी प्रयोग किया गया है । उत्तमपुरुष की जगह प्रथम पुरुष (अन्यपुरुष) को प्रयुक्त करके कथाकार ने अभीष्ट प्रभाव उत्पन्न किया है। जैसे : एस अज्जउत्तो जं जाणासि तं तहा इहं आणे ।
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जइ नत्थि सो, इंमा नत्थि एत्थ हु तुमंपि नत्थि त्ति ।। (प्रियंगुसुन्दरीलम्भ: पृ. २९२) प्रियंगुसुन्दरी गंगरक्षित महादौवारिक से वसुदेव को कन्या के अन्तःपुर में ले आने का आग्रह कर रही है : 'वह जो आर्यपुत्र हैं, जिन्हें तुम जानते हों, उन्हें यहाँ ले आओ । यदि वह नहीं हैं, तो यह (प्रियंगुसुन्दरी) भी नहीं है और ऐसी स्थिति में तुम (गंगरक्षित) भी नहीं हो । अर्थात्, तब तुम्हारे लिए भी संकट उपस्थित होगा । यहाँ प्रियंगुसुन्दरी ने अपने लिए अहं ( मैं ) का प्रयोग न करके इमा (यह) का प्रयोग किया है, जिसमें कामजन्य असह्य दुःख की भावना की व्यंजना अभीष्ट है 1
इसी प्रकार, ‘वसुदेवहिण्डी’ के 'साहुसंदेसं पडिवालेमाणी अच्छामि' (२२३.२१), 'तम्मि देवे पडिबद्धरागा' (२२३.१८) जैसे प्रयोगों के 'पालयन्ती' और 'बद्धरागा' शब्दों में 'प्रति' (प्रा. 'पडि ) उपसर्ग लगाकर कथाकार ने साधु-सन्देश के विधिवत् पालन तथा देवता के प्रति का भक्ति की व्यंजना द्वारा शान्तरस को द्योतित करना चाहा है, इसलिए उन्होंने ऐसे प्रयोगों मे उपसर्ग-वक्रता का आश्रय लिया है। पुनः रुक्मिणी के प्रति प्रद्युम्न की इस उक्ति, 'माउए वि मे थो न पीयपुव्वोत्त' (९५.१४), में कथाकार ने निपात, यानी अवयव या घटक उपादान से रहित अव्यय ('वि' = अपि) की वक्रता से काम लिया है। इससे वात्सल्यरस-बोधक यह अर्थ अभिव्यक्त होता है कि प्रद्युम्न ने पहले माँ का भी स्तन नहीं पिया था; क्योंकि जन्म लेते ही उसे पूर्व - वैरवश ज्योतिष्कदेव धूमकेतु उठा ले गया था । यहाँ प्रद्युम्न के मातृवियोगजन्य पूर्वानुभूत दुःख की अभिव्यंजना मर्म का स्पर्श करनेवाली है ।
इस प्रकार, स्थाली-पुलाकन्याय से वक्रोक्ति-सिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में निदर्शित प्रसंगों से 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा की ततोऽधिक समृद्धि का संकेत मिलता है। इतना ही नहीं, रस, ध्वनि, अलंकार, गुण, रीति आदि की दृष्टि से भी इस कथाकृति में अध्ययन के अनेक आयाम सुरक्षित हैं । यहाँ रीति की दृष्टि से कतिपय भाषिक प्रसंगों की विवेचना अपेक्षित होगी ।
'वसुदेवहिण्डी' की भाषा में साहित्यिक दृष्टि से सभी गुणों- माधुर्य, ओज और प्रसाद समावेश मिलता है । वृत्तियों में भी यथाप्रसंग उपनागरिका, कोमला और परुषा का विनिवेश हुआ है। इन सब साहित्यिक और भाषिक वैशिष्ट्यों से समन्वित 'वसुदेवहिण्डी' में संघदासगणी द्वारा प्रयुक्त रीति शरीर में आत्मा की तरह सन्निविष्ट है । साहित्याचार्यों द्वारा वर्णन की पद्धति शैली या पद-संघटना ही रीति के रूप में अभिहित हुई हैं । कहना न होगा कि संघदासगणी के कथाग्रन्थ में भरत सें विश्वनाथ तक के आचार्यों की रीति के स्वरूप परिलक्षणीय हैं । भरत (नाट्यशास्त्र : १४.३६) की दृष्टि से रीति का नाम 'प्रवृत्ति' है । तदनुकूल, कथाकार ने 'वसुदेवहिण्डी' में इस पृथ्वी के विविध देशों, वेश-भूषाओं, भाषिक प्रवृत्तियों, आचारों और वार्त्ताओं का समायोज किया है। वामन ('काव्यालंकारसूत्रवृत्ति' : १.१.२ ) के द्वारा निर्धारित लक्षण के अनुसार देखें, तो कथाकार की शैली विशिष्ट गुणात्मक पदरचना से सातिशय रमणीयता का संवहन करती है। इसके अतिरिक्त, कथाकार की पद-संघटना गुणाश्रित होने के कारण रंसोद्रेक की शक्ति से भी सम्पन्न है