Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
View full book text
________________
४३४
वसदेवहिण्डी:भारतीय जीवन और संस्कृति की बहत्कथा
अपराधों और उनके लिए विहित दण्डविधान का भी प्रचुर उल्लेख किया है। ज्ञातव्य है कि विधि-व्यवस्था मानविकी के विभिन्न विषयों से जुड़ी हुई है। तत्कालीन न्यायभावना में भी व्यापक मानव-हित का प्रतिबिम्बन होता है, जो तत्त्वत: मानव-संस्कृति से ही अन्तःसम्बद्ध है। न्याय का सम्बन्ध अनादिकाल से ही मनुष्य की भावनाओं और उसके बाह्य आचरणों के साथ रहा है। प्रसिद्ध विधिवेत्ता पं. सतीशचन्द्र मिश्र ने कहा है कि मनुष्य की नैसर्गिक स्वार्थपरता और अहम्भाव के कारण एक के दूसरे के साथ संघर्ष की स्थिति में आ जाने की आशंका सतत बनी रहती है, जिसमें सामाजिक जीवन में उथल-पुथल होने या उसके छिन्न-भिन्न हो जाने का बीज निहित रहता है। इस परिस्थिति से बचाव के लिए मनुष्य के मन में जो भाव उत्पन्न होते हैं और जो सामान्यत: एक दूसरे को मान्य होते हैं, उन्हें ही न्यायभावना के नाम से पुकारा जाता है। राजतन्त्रात्मक शासन-प्रणाली में भी मानव-समाज के संरक्षण और परिचालन में न्यायभावना बराबर क्रियाशील रही है।
प्रक्रियामूलक विधियों में मुकदमा और साक्ष्य-विधि ('लॉ ऑव इविडेंस') का उल्लेखनीय महत्त्व होता है। कथाकार संघदासगणी ने इन दोनों न्याय-प्रक्रियाओं का भी विशद वर्णन किया है। उदाहरण के लिए, 'वसुदेवहिण्डी' में उल्लिखित गाड़ीवान की कथा (धम्मिल्लचरितः पृ. ५७) द्रष्टव्य है। कथा है कि कहीं कोई गँवार गाड़ीवान रहता था। एक दिन वह गाड़ी में धान भरकर और पिंजरे में एक तीतर लेकर शहर गया। वहाँ गन्धिकपुत्र ने पूछा : ‘गाड़ी-तीतर कितने में बेचोगे?' गाड़ीवान ने कहा : ‘एक कार्षापण में ।' गन्धिकपुत्र ने एक कार्षापण दिया
और तीतर-समेत गाड़ी लेकर चल पड़ा। 'गाड़ी क्यों ले जा रहे हो?' गाड़ीवान ने टोका। गन्धिकपुत्र ने उत्तर दिया : 'मैंने मूल्य देकर खरीदा है।' इस बात पर दोनों में झगड़ा हो गया
और मुकदमेबाजी भी हो गई। गाड़ीवान गन्धिकपुत्र के वाक्चातुर्य या वाक्छल (गाड़ी-तीतर, यानी गाड़ी-समेत तीतर) को नहीं समझ पाने के कारण स्वयं चूक गया था, इसलिए वह मुकदमे में भी हार गया और गन्धिकपुत्र गाड़ी-समेत तीतर ले गया।
किन्तु, कुलपुत्र द्वारा प्रदर्शित उपाय से गाड़ीवान की गाड़ी लौट आई। कथा है कि गाड़ीवान की गाड़ी जब छिन गई, तब वह खाली बैल को साथ लिये रोता-चिल्लाता चला जा रहा था। कुलपुत्र के पूछने पर उसने अपने ठगे जाने की बात कही। दयार्द्र होकर कुलपुत्र ने उसे उपाय बता दिया। वह गन्धिकपुत्र के घर जाकर उससे बोला : “तुमने यदि मेरी माल-लदी गाड़ी ले ली, तो बैल भी ले लो और बदले में मुझे सक्तु-द्विपालिका (सामान्य अर्थः दो पैली सत्त; श्लेषः सत्तू-सहित दो पैरोंवाली स्त्री) दे दो। मैं जिस किसी के हाथ से नहीं लूंगा। सभी अलंकारों से भूषित तुम्हारी प्यारी पली जब देगी, तभी मुझे परम सन्तोष होगा।” गाड़ीवान और गन्धिकपुत्र द्वारा आमन्त्रित साक्षी के समक्ष गन्धिकपुत्र की पत्नी दो पैली सत्तू देने आई। गाड़ीवान सत्तू के साथ उसकी पत्नी को भी हाथ पकड़कर ले चला। ‘ऐसा क्यों करते हो?' गन्धिकपुत्र ने टोका, तो उसने कहा कि 'सक्तु-द्विपालिका' ले जा रहा हूँ। अन्त में मुकदमा हुआ और गाड़ीवान के वाक्छल को न समझ पाने के कारण गन्धिकपुत्र से जो चूक हो गई थी, उसके कारण वह भी मुकदमे में हार गया। अन्त में, बड़ी कठिनाई से दोनों में समझौता हुआ। गाड़ीवान ने गन्धिकपुत्र की पली छोड़ दी और गन्धिकपुत्र ने गाड़ीवान को गाड़ी लौटा दी। १.द्र . विधिविज्ञान का स्वरूप', प्र. बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद्, पटना : पृ.६