Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
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संघदासगणी ने यज्ञरक्षा के सम्बन्ध में एक और महत्त्वपूर्ण बात की सूचना दी है। पुराकाल में राक्षस लोग ऋषि-मुनियों द्वारा आयोजित शान्ति-निमित्तक यज्ञ का विध्वंस करते थे, किन्तु 'वसुदेवहिण्डी' में हिंसामूलक राजसूय यज्ञ का विनाश अहिंसावादियों के द्वारा कराया गया है। सबसे बड़ी पाखण्डपूर्ण विडम्बना तो यह है कि हिंसावादी यज्ञकर्ता, यज्ञरक्षा के निमित्त ऋषभस्वामी जैसे अहिंसोपदेशक तीर्थंकर की प्रतिभा की स्थापना करके उनके समक्ष निर्विघ्न भाव से हिंसायज्ञ . करते हैं और ऐसी स्थिति में अहिंसा के समर्थक नारद और दिवाकरदेव सहज ही ताटस्थ्य-भाव अपना लेते हैं। आज भी अनेक लोग अहिंसाधर्म के लिए प्राण निछावर करनेवाले महात्मा गान्धी की प्रतिमा स्थापित करके, उसकी आड़ में अनेक प्रकार के हिंसाकार्यों को प्राश्रय और प्रोत्साहन देते हैं। और, उन हिंसाजीवियों की नृशंसता के समक्ष अहिंसावादी मौन रहना ही श्रेयस्कर समझते हैं। ___ संघदासगणी ने वेदों के ज्ञाताओं की परीक्षा-सभा का भी उल्लेख किया है, जिसमें बड़े-बड़े वृद्ध वेदपारग भी भाग लेते थे। कथा (सोमश्रीलम्भ : पृ. १९३) है कि एक दिन, सोमश्री के इच्छुक वेदज्ञों की परीक्षा-सभा आयोजित हुई। जब वेदज्ञों को यह मालूम हुआ कि मगधनिवासी गौतमगोत्रीय स्कन्दिल (वसुदेव) नाम का ब्राह्मण, जो ब्रह्मदत्त उपाध्याय का शिष्य है, सभा में उपस्थित है, तब किसी को भी परीक्षा में उतरने का साहस नहीं हुआ। पूरी परिषद् समुद्र की भाँति स्थिर और मौन हो गई। ग्रामप्रधान ने घोषणा की : “यदि कोई बोलने का उत्साह नहीं दिखलाता, तो सभी ब्राह्मण जैसे पधारे हैं, वैसे ही विदा हों, फिर से सम्मेलन का आयोजन होगा।" तब वसुदेव ने कहा : “अधिकृत पुरुष प्रश्न करें, कदाचित् मैं उत्तर दे सकूँ।” प्रश्न पूछे जाने पर वसुदेव ने अस्खलित भाव से वेद का सस्वर पाठ किया और उसका अवितथ रूप से परमार्थ भी बताया। - तब, ग्रामप्रधान ने फिर घोषित किया : “हे वेदपारगो ! सुनें । वेदविद्या का अध्ययन जिन्होंने किया है, वे इस सभा में उपस्थित वेदपारग वृद्धों के समक्ष आयें और प्रश्नों का उत्तर दें।" फिर, सभा की वही पूर्ववत् स्थिति रही। पूरी परिषद् को मौन देख उपाध्याय ने वसुदेव से कहा : प्रश्नों का उत्तर देकर कन्यारत्न प्राप्त करो।" वसुदेव उठकर खड़े हुए। उन्होंने जिन-प्रतिमाओं को प्रणाम निवेदित किया। कौमुदीयुक्त चन्द्रमा के समान गले में शोभित शुभ्र यज्ञोपवीत से पवित्र वसुदेव को परीक्षा-सभा में उपस्थित लोगों ने आदरपूर्वक देखा। उसके बाद वसुदेव ने वेदपारग वृद्धों से कहा : “जहाँ संशय हो, या जहाँ जो पूछना हो, पूछे ।” वसुदेव की गम्भीर निर्घोषपूर्ण वाणी सुनकर परीक्षा-सभा के लोग विस्मित होकर बोले : “इसने तो प्रश्न के अधिकार का सम्मान किया है और इसकी वाणी के विषय और अक्षर बिलकुल स्पष्ट हैं।" वृद्ध वेदपारगों ने वसुदेव से पूछा : “प्रियदर्शन ! कहो, वेद का परमार्थ क्या है?" वसुदेव ने उत्तर दिया : “नैरुक्तिकों ने कहा है कि 'विद ज्ञाने' धातु से वेद बना है। जो उसे जानता है या उससे जानता है या उसमें जानता है, उसे वेद कहते हैं। अमिथ्यावादी अर्थ ही उसका परमार्थ है।” वसुदेव के उत्तर से सन्तुष्ट होते हुए वेदपारग वृद्धों ने पूछा : “वेद का क्या फल है ?" वसुदेव ने उत्तर दिया : “विशेष ज्ञान (विज्ञान) ही उसका फल है।" ___ इसके बाद वसुदेव और वृद्ध वेदपारगों में लम्बा प्रश्नोत्तर हुआ : 'विज्ञान का क्या फल है?' 'विरति ।' 'विरति का क्या फल है?' 'विरति का फल संयम है।' 'संयम का क्या