Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
३१९ 'वसुदेवहिण्डी' भारतीय सांस्कृतिक जीवन का अनन्त अक्षय कोष है । अतएव, इसमें बहुविध सांस्कृतिक उज्ज्वल चित्र विनिवेशित हैं। संघदासगणी ने अपने समकालीन जीवन से प्राप्त सांस्कृतिक आयामों का अतिशय भव्य उद्भावन किया है, जिनमें गम्भीरता से प्रवेश करने पर सांस्कृतिक सध्ययन के अनेक अन्तर्यामी सूत्रों की उपलब्धि होती है। यहाँ प्रमुख सांस्कृतिक जीवन के कतिपय महत्वपूर्ण प्रसंगों की अवतारणा की जा रही है।
संस्कृति के विभिन्न सन्दर्भ :
भारतीय जीवन में संस्कारों का बड़ा महत्त्व है। भारतीय शास्त्रों में सोलह संस्कार प्रसिद्ध हैं : गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकर्म, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, कर्णभेद, उपनयन, केशान्त, विद्यारम्भ, वेदारम्भ, समावर्तन, विवाह और अन्त्येष्टि । मनु बारह संस्कार ही मानते हैं। वह कर्णभेद, विद्यारम्भ, वेदारम्भ और अन्त्येष्टि को अपने संस्कारों की गणना में सम्मिलित नहीं करते । यहाँ ज्ञातव्य है कि संस्कार ही संस्कृति है। हिन्दी में 'संस्कृति' नव्याविष्कृत शब्द है, जो 'कल्चर' (यूरोपीय साहित्य में बेकन को इस शब्द का प्रथम प्रयोक्ता माना जाता है) के पर्यायवाची अर्थ में गढ़ा गया है। यों, प्राच्य शास्त्रों में, आधुनिक शब्द-व्यवहार में स्वीकृत 'संस्कृति'-स्थानीय प्राप्य शब्द हैं 'संस्कार' और 'संस्क्रिया'। किन्तु सम्प्रतिकों को 'संस्कार' में सोलह संस्कार-मात्र की अर्थसीमा के पूर्वाग्रह की प्रतीति-सी होती है, जबकि 'संस्कृति' में उन्हें मानसिक और शारीरिक, दोनों प्रकार की शुद्धता या पवित्रीकरण की समग्रता का बोध विराट फलक पर उद्भासित प्रतीत होता है। इसलिए, अधुना, 'संस्कार' के अर्थ में 'संस्कृति' शब्द ही बहुशः प्रचलित है। , वैदिक साहित्य में 'संस्कृति' शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में ही हुआ है। ‘यजुर्वेद' में 'विश्ववारा संस्कृति का सन्देश प्राप्त होता है। प्राचीन मानवशास्त्र (एन्थ्रोपोलॉजी) में भी संस्कृति या 'कल्चर' शब्द का बड़ा व्यापक प्रयोग हुआ है। डॉ. विश्वनाथप्रसाद वर्मा ने प्रसिद्ध रूसी चिन्तक ब्रोनिस्लाव मालिनोव्स्की और फिर बेकन, हर्डर, काण्ट फिक्द, हम्बोल्ट आदि अनेक पाश्चात्य मनीषियों के संस्कृति-विषयक विचारों की विवेचना करते हुए लिखा है कि मानव जिन समस्त उपादानों, उपकरणों और सामाजिक वस्तुओं का उपयोग प्राकृतिक शक्तियों के साथ संघर्ष और सामंजस्य में करता है, उन सबका परिग्रहण संस्कृति में होता है । इस प्रकार, समस्त सामाजिक देनों का नाम संस्कृति है, जिसमें मानव की उपादानात्मक और समन्वयात्मक आवश्यकताओं के सम्मिलित रूपों के दर्शन होते हैं। संस्कृति का अर्थ बहुव्यापक है। मानवों के प्राय: समस्त क्रियाकलाप एवं विश्वासों आदि का बोध इस एक 'संस्कृति' शब्द से ही हो जाता है। इस प्रकार, संस्कृति, मनुष्यों की आध्यात्मिक, वैज्ञानिक और रोमाण्टिक दृष्टि की आत्मनिष्ठता का समन्वय उपस्थित करनेवाली तो होती ही है, उनकी नैतिकता, यानी बाह्याचरण और पारम्परिक नियमों के
१. अच्छित्रस्य ते देव सोम सुवीर्य्यस्य रायस्पोषस्य ददितारः स्याम । सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्ववारा स प्रथमो वरुणो मित्रोऽग्निः॥
-यजुर्वेद,७.१४ २. द्रष्टव्य : 'राजनीति और दर्शन',प्र. बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद्, पटना, प्रथम संस्करण, सन् १९५६ ई, पृ. ४३९ ।