Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
४४७ मानव-जीवन के प्रधान लक्ष्यों में अन्यतम है। इसीलिए जीवन की पहली उम्र में विद्यार्जन, दूसरी उम्र में अर्थार्जन और तीसरी उम्र में तपस्या की प्राप्ति, नीतिकारों द्वारा निर्धारित इन मानव-कर्मों को पूरा न करनेवाला व्यक्ति अपनी चौथी उम्र में केवल पछताता ही रह जाता है।'
संघदासगणी की 'वसुदेवहिण्डी' में भी वितैषणा को बहुत अधिक महत्त्व दिया गया है। भारतीय संस्कृति के सन्दर्भ में कथाकार की अर्थ-परिकल्पना की कुछ बातें अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। वैदिक परम्परा के परिप्रेक्ष्य में, संघदासगणी ने भी धन का उपार्जन मुख्यत: वैश्यों तक सीमित रखकर समस्त समाज के उद्योगोन्मुखी होने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया है और अर्थ के अत्यन्त स्वार्थपरक भोग को बुरा मानकर अस्तेय और दान को मनुष्य के उत्कृष्ट शील में परिगणित किया है। अर्थ का यज्ञों में प्रयोग करने का विधान वेदों और ब्राह्मण-ग्रन्थों में भी पाया जाता है। इससे इतना स्पष्ट है कि साध्य या लक्ष्य के रूप में आर्थिक कर्म का परिग्रहण भारतीय संस्कृति में नहीं हुआ है। यद्यपि व्यावहारिक जीवन और सांसारिक संघर्ष में धन के महत्त्वपूर्ण स्थान को अस्वीकार नहीं किया गया है। इसलिए, संघदासगणी द्वारा उपन्यस्त साम्राज्य-व्यवस्था का आर्थिक ढाँचा, व्यावसायिक या व्यापार की आधार-भूमि पर प्रतिष्ठित है। 'वसुदेवहिण्डी' में वर्णित आर्थिक आय के समस्त व्यावसायिक स्रोतों पर राज्य का स्वामित्व दिखलाया गया है और इस प्रकार की व्यावसायिक अर्थनीति का परोक्ष उद्देश्य एक सशक्त, आत्मनिर्भर और सर्वसाधनसम्पन्न राज्य की प्रतिष्ठा करना रहा है। तत्कालीन व्यापारों में समुद्रयात्रा के द्वारा होनेवाले व्यापार का प्रमुख स्थान है। यहाँ उस समय के व्यापार-वाणिज्य, कृषि आदि के माध्यम से होनेवाली अर्थ-व्यवस्था से सम्बद्ध कतिपय कथाप्रसंगों पर प्रकाश डालना अपेक्षित है।
संघदासगणी द्वारा वर्णित राज्य की अर्थ-व्यवस्था या राजकोष की वृद्धि के साधनों में, जिन्हें कौटिल्य ने आयशरीर (२.६) कहा है, व्यापार के पथों का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है। तत्कालीन राजाओं के लिए उनके शासनाधीन नवनिधि ही राजकोष का प्रतिनिधित्व करती थी। कौटिल्य ने अपने 'अर्थशास्त्र' (२.६) में व्यापार के पथों को वणिक्पथ कहा है। उन्होंने इसके दो भेद किये हैं : स्थलपथ और वारिपथ । 'वसुदेवहिण्डी' के सार्थवाह समुद्र-संचरण में बड़े कुशल हैं। चूंकि जलमार्ग से व्यापार करने में दूना लाभ होता है (भंडलग्गाओ ताओ जलपहगयाओ द्गुणाओ हवंति; पृ. १४६)। इसलिए सार्थवाह व्यापार के लिए कष्ट की परवाह किये विना दुर्गम स्थलपथों और समुद्रपथों की यात्रा करते हैं। चारुदत्त की आत्मकथा में स्थलपथ और समुद्रपथ से होनेवाली यात्राओं का रुचिकर और रोमांचकारी वर्णन संघदासगणी ने किया है। सच पूछिए तो, चारुदत्त की आत्मकथा जाँबाज सार्थवाहों की समुद्रयात्रा की साहस-कथा है, जो बुधस्वामी के 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' की, सानुदास की आत्मकथा (सर्ग १८) का प्रतिरूप होते हुए भी अपूर्व और अद्वितीय है।
१. प्रथमे वयसि नाधीतं द्वितीये नार्जितं धनम् ।
तृतीये न तपस्तप्तं चतुर्थे किं करिष्यति ॥ (नीतिश्लोक) २. न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो लप्स्यामहे वित्तमद्राक्ष्म चेत्त्वा। जीविष्यामो यावदीशिष्यसि त्वं वरस्तु मे वरणीयः स एव ॥
-कठोपनिषद् : १.१.२७