Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
३७५ संघदासगणी ने, तिर्यक्-जातीय जीवों के उल्लेख करने के क्रम में साँपों के भी कई स्वाभाविक चित्र अंकित किये हैं। स्वदेश लौटने के क्रम में अगडदत्त जब श्यामदत्ता के साथ रथ पर जा रहा था, तब रास्ते में उसे एक महानाग से सामना करना पड़ा था। (धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ४५) पहले तो उसने फुफकार सुना, जो लोहार की धौंकनी की आवाज के समान लग रहा था। तभी, सामने विशाल फन काढ़े महानाग को देखा। वह अंजनपुंज के समान चमक रहा था और अपनी दोनों जिह्वाओं को लपलपा रहा था; वह उत्कट, स्फुट, विकट, कुटिल और कर्कश ढंग से फटाटोप (फन फैलाने और फुफकारने) में दक्ष था, साथ ही वह अपने शरीर के तीन हिस्से को ऊपर उठाकर खड़ा था। घोड़े और रथ के शब्द को सुनने से उसे क्रोध हो आया था।
इसी प्रकार, धम्मिल्ल विमलसेना के साथ जब रथ पर जा रहा था, तभी जंगल के रास्ते में उसे विशाल फनवाला भुजंग दिखाई पड़ा था (तत्रैव : पृ. ५४)। उस भुजंग की आँखें गुंजा (करजनी) की तरह गहरा लाल थीं, वह बवण्डर की तरह फुफकार रहा था, और अपनी दोनों जिह्वाओं को लपलपा रहा था।
__ संघदासगणी ने 'खारक' सर्प का उल्लेख किया है। इसे 'खार' भी कहा गया है । यह पंजों के बल चलनेवाली तथा आकाश में भी उड़नेवाली एक विशिष्ट नागजाति है। इसे गिरगिट या गोह की भाँति पंजे होते हैं। इसीलिए, इसे 'भुजपरिसर्प' जाति का नाग (द्र. 'पाइयसद्दमहण्णवो) कहा गया है। सूत्रकृतांग' (२.३.२५) में भी इसकी चर्चा आई है। स्थानांग (३.४५) में भी भुजपरिसर्प का उल्लेख हुआ है। स्थानांगवृत्ति से स्पष्ट होता है कि परिसर्प, अर्थात् रेंगनेवाले प्राणी, दो प्रकार के हैं -छाती के बल रेंगनेवाले उर:परिसर्प और पंजों के बल रेंगनेवाले भुजपरिसर्प । उर:परिसर्प में सर्प आदि और भुजपरिसर्प में नेवले आदि की गणना होती है।
किन्तु, वसुदेवहिण्डी के वर्णन के अनुसार, खारक या भुजपरिसर्प से साँप का ही संकेत होता है। द्वितीय श्यामलीलम्भ की कथा है कि पवनवेग और अर्चिमाली नाम के विद्याधर वसुदेव को आकाशमार्ग से उड़ाकर वैताढ्य पर्वत की दक्षिण श्रेणी में स्थित किन्नरगीतनगर के उद्यान में जब ले गये थे, तब उन्होंने (वसुदेव ने) वहाँ की बावली में खारक को आकाश से उतरते देखा
और उन्हें ऐसा अनुमान हुआ कि कदाचित् इस वापी में नागजाति की विद्याधरियाँ रहती है, इसीलिए, खारक (उड़नेवाले नाग) आकाश से यहाँ उतरते हैं ("मया चिंतियं-किं मण्णे सिरीसिवा विज्जाहरी होज्जा, जओ इमा खारका आकासेणं वच्चंति"; पृ. १२३) । वसुदेव के अभिप्राय को जानकार राजा अशनिवेग की पुत्री श्यामली की बाह्य प्रतिहारी मत्तकोकिला ने उनसे कहा कि यहाँ नागजाति की विद्याधरी नहीं रहती है। इसके आगे कथाकार ने उत्तर प्रसंग को अधूरा-सा छोड़ दिया है। पूर्व प्रसंग से और उसके आगे की कथा से ऐसा सहज ही अनुमान होता है कि स्फटिक सोपानयुक्त तथा चतुष्पदों के लिए अगम्य एवं मधुर और हितकर निर्झरवाली उस गहरी वापी में भुजपरिसर्प जाति के जीव आकाश से उतरकर पानी पीते होंगे। १.स्थानांगवृत्ति, पत्र १०८: उरसा वक्षसा परिसर्पन्तीति उर: परिसर्पाः-सर्पादयस्तेऽपि भणितव्याः, तथा भुजाभ्यां
बाहुभ्यां परिसर्पन्ति ये ते, यथा नकुलादयः ।' २. मद्रास से प्रकाशित प्रसिद्ध बाल-मासिक 'चन्दामामा' (हिन्दी-संस्करण) के किसी पुराने अंक में मुद्रित
भुजपरिसर्प नाग (उड़नेवाले सॉप) से सम्बद्ध एक सचित्र प्राचीन कथा में पंजोंवाले भुजपरिसर्प नाग का रंगीन रेखांकन हमें दृष्टिगत हुआ है। ले.