Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ
२०१ नामक अध्याय में उपस्थित किया गया है और भावमिश्र ने 'भावप्रकाश' में इसे 'गर्भप्रकरण' और 'बालप्रकरण' के अन्तर्गत रखा है। ‘भावप्रकाश' चूँकि परवर्तीकालीन आयुर्वेद-ग्रन्थ है, इसलिए प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर निर्मित होते हुए भी इसमें तद्विषयक समसामयिक विज्ञान के विकास का भी लेखा-जोखा समाहत है।
गर्भ की उत्पत्ति-भूमि रजस्वला स्त्री होती है और कामपूर्वक मिथुनों का संयोग होने पर स्त्री के गर्भाशय में शुद्ध शोणित और शुक्र के मेल से गर्भ का उपक्रम होता है और वह जब उत्पन्न होता है, तब बालक कहलाता है। जैनों के द्वादश अंगों में तृतीय स्थानांग' ('ठाणं) के पाँचवें स्थान के सूत्र १०३-१०६ में 'गब्धधरणपदं' शीर्षक से गर्भधारण के सम्बन्ध में बड़ी विशदता से विचार किया गया है। 'स्थानांग' के उक्त सन्दर्भ में बताया गया है कि पुरुष के सहवास के विना भी स्त्री गर्भ धारण कर सकती है। इसके पाँच कारण हैं : १. पुरुष-वीर्य से संसृष्ट स्थान को गुह्य प्रदेश से आक्रान्त कर बैठी हुई स्त्री के योनिदेश में शुक्रपुद्गलों का आकर्षण होने पर; २. शुक्र-पुद्गलों से संसृष्ट वस्त्र के योनिदेश में अनुप्रविष्ट हो जाने पर; ३. पुत्रार्थिनी होकर स्वयं अपने ही हाथों से शुक्र-पुद्गलों को योनिदेश में अनुप्रविष्ट कर देने पर; ४. दूसरों के द्वारा शुक्र-पुद्गलों के योनिदेश में अनुप्रविष्ट किये जाने पर और ५. नदी, तालाब आदि में स्नान करती हुई स्त्री के योनिदेश में शुक्रपुद्गलों के अनुप्रविष्ट हो जाने पर ।
उक्त पाँच कारणों में द्वितीय कारण से- शुक्रपुद्गलों से संसृष्ट वस्त्र के योनिदेश में अनुप्रविष्ट हो जाने पर गर्भ की उत्पत्ति की एक कथा 'वसुदेवहिण्डी' के प्रियंगुसुन्दरीलम्भ (पृ. २९८) में आई है। एक बार राजा चारुचन्द्र अपनी रानी कामपताका के साथ चम्पानगरी के एक उद्यान में ठहरा था। रानी के सैनिकों ने फल-फूल के निमित्त पूरे उद्यान को लूट लिया और उसे ध्वस्त कर दिया। इससे उद्यानपति चण्डकौशिक ने रुष्ट होकर राजा को शाप दे दिया : “दुराचारी ! चूंकि तुमने मेरे उद्यान को लूट लिया और उसे ध्वस्त कर दिया, इसलिए मैथुन-सम्प्राप्ति के समय तुम्हारे माथे के सौ टुकड़े हो जायेंगे, जिससे तुम्हारी मृत्यु हो जायगी।" यह सुनकर राजा को भय हो आया और वह उद्यान से निकलकर नन्दनवन चला गया। वहाँ राज्य का परित्याग करके उसने तपस्वी की रीति से प्रव्रज्या ले ली और रानी एवं मंजुला धाई के साथ रहकर वह तपश्चर्या करने लगा। ___ एक बार किसी दिन प्रहर्षित राजा के वल्कल-वस्त्र में शुक्रपुद्गल (शुक्रकीट) आ गया। देवी कामपताका ने उसी वल्कलवस्त्र को पहन लिया। फलतः, वे शुक्रपुद्गल रानी की योनि में प्रवेश कर गये। रानी ने यथासमय पुत्री प्रसव की। उसका नाम ऋषिदत्ता रखा गया। इस प्रसंग से स्पष्ट है कि संघदासगणी ने अपनी कथा-कल्पना के सन्दर्भ में 'स्थानांग' को प्रमुख रूप से अपना आधारादर्श बनाया है।
आयुर्वेद एक ओर यदि ज्योतिष और तन्त्रविद्या से जुड़ा हुआ है, तो दूसरी ओर, गर्भावतरण के प्रसंग में, वह दर्शन (सांख्यदर्शन)-शास्त्र का भी अनुगमन करता है, जब वह यह कहता है कि सूर्यकिरण और सूर्यकान्त मणि के संयोग से जिस प्रकार आग पैदा होती है, उसी प्रकार शुक्र और रज के संयोग से जीव उत्पन्न होता है। वह अनादि अनन्त आत्मा जीव रूप में कैसे उत्पन्न