Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
View full book text
________________
वसदेवहिण्डी:भाषिक और साहित्यिक तत्त्व
अर्द्धमागधी
महाराष्ट्री दाहिण (पृ.२३५)
दक्षिण धूया (पृ.३२०)
धूआ सेढीयं (पृ.२५७)
सेढी तिगिच्छिय (पृ.१०३)
चिइच्छि तिरिक्ख (पृ.२९)
तिरिय पारेवअ (पृ.३३८)
पाराव इक्खु (पृ.१६४)
उच्छु पिहु (पृ.१८७)
पुहं, पिहं कीलणओ (पृ.१८१) किड्डणओ भिंभल (पृ. ६४)
विन्भल गरुय (पृ.१०)
गरु भमुहा (पृ. २८)
भुमआ दुगुल्ल (पृ.२१८)
दुअल्ल निष्फण्ण (पृ.२६८)
णिप्पण पिया (पृ.१२)
पिआ उवरिं (पृ.१३)
उवरि चिलाइगा (पृ.३२५)
किराअ सुकुमालिया (पृ.१३९) सुकुमारिया सुमिण (पृ.२)
सिमिण उपर्युक्त तुलनात्मक तालिका से यह स्पष्ट है कि 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा का झुकाव महाराष्ट्री की अपेक्षा अर्धमागधी की ओर अधिक है। विशेषकर जैनागमोक्त दार्शनिक तत्त्वों के विवेचन की भाषा-शैली तो आगमिक भाषा के समानान्तर प्रतीत होती है। किन्तु, इस प्रसंग में यह ध्यातव्य है कि अर्द्धमागधी और जैन महाराष्ट्री में ततोऽधिक भाषिक समता है। जैन परम्परा में अर्धमागधी के आगम-ग्रन्थों के अतिरिक्त चरित, कथा, दर्शन, तर्क, ज्योतिष, भूगोल, स्तोत्र आदि विषयों से सम्बद्ध प्राकृत का प्रचुर साहित्य उपलब्ध है। इस साहित्य की भाषा को प्राकृत के वैयाकरणों ने प्राचीन जैन महाराष्ट्री नाम देकर महाराष्ट्री और अर्द्धमागधी से पृथक् इस भाषा का १. इस सन्दर्भ में शान्तिस्वामी के प्रवचन की प्रांजल आगमिक भाषा-शैली की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य है : “अजीवा
जीवा य। तत्थ अजीवा चउविहा-धम्मत्थिकाओ अहम्मत्यिकाओ, आगासत्थिकाओ, पोग्गलत्थिकाओ। पोग्गला पुण रूविणो, सेसाऽरूविणो। धम्मा-ऽधम्मा-ऽऽगासा जहक्कममुद्दिट्टा जीवपोग्गलाणं गिति-ठितिओगाहणाओ य उवयरेंति । पोग्गला जीवाणं शरीरकरणजोगाऽऽणुपाणुनिवित्ती । जीवा दुविहा-संसारी सिद्धा य। तत्थ सिद्धा परिणेव्यकज्जा। संसारिणो दुविहा-भविया अहविय्य यते अणाइकम्मसंबंधा य भवजोग्गजा...।” (केतुमतीलम्भ : पृ. ३४२)