Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
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(७.३१,५५-५६) और 'याज्ञवल्क्यस्मृति' (राजधर्मप्रकरण, १२) आदि स्मृतियों के अतिरिक्त धर्मशास्त्रों और धर्मसूत्रों में भी किया गया है।
अमात्य मन्त्री के ही समानान्तर नहीं थे, अपितु बौद्धिकता और कार्यप्रकार की दृष्टि से दोनों भिन्नपदीय थे । कौटिल्य के अनुसार, मन्त्री और अमात्य दो अलग-अलग पद थे । कौटिल्य ने कहा है कि 'इस प्रकार राजा को चाहिए कि वह यथोचित गुण, देश, काल और कार्य की व्यवस्था को देखकर सर्वगुणसम्पन्न व्यक्तियों को अमात्य बनाये; किन्तु सहसा ही उनको मन्त्रिपद पर नियुक्त न करे ।' अपने 'अर्थशास्त्र' में आचार्य भरद्वाज का अभिमत उपस्थित करते हुए कौटिल्य ने लिखा है कि राजा अपने सहपाठियों को अमात्य पद पर नियुक्त करे; क्योंकि उनके हृदय की पवित्रता से वह सुपरिचित होता है; उनकी कार्यक्षमता को वह जान चुका होता है । ऐसे ही अमात्य राजा के विश्वासपात्र होते हैं। इस विवरण से स्पष्ट है कि अमात्य राजा के मित्रवत् होते थे, तो मन्त्री उसके राज्य - प्रशासन के नियन्त्रक और नियामक हुआ करते थे । यद्यपि, 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' में बुधस्वामी ने नरवाहनदत्त के मित्रतुल्य अमात्यों को भी 'मन्त्री' शब्द से ही संज्ञित किया है। राजा उदयन ने हरिशिख, गोमुख, मरुभूति और तपन्तक को युवराज नरवाहनदत्त के मन्त्री के रूप में नियुक्त करते हुए उन्हें निर्देश किया था कि वे नरवाहनदत्त को अपना प्रातर्वन्दनीय भर्त्ता या प्रभु समझकर निरन्तर उसकी रक्षा और मनोविनोद में तत्पर रहें। नरवाहनदत्त ने अपने उक्त चारों मन्त्रियों को बराबर 'सुहृद्' शब्द से विशेषित या सम्बोधित किया है। यद्यपि, कौटिल्य द्वारा निर्दिष्ट लक्षणों के अनुसार, उक्त चारों मित्र नरवाहनदत्त के अमात्य - तुल्य ही थे । इससे स्पष्ट है कि बुधस्वामी की दृष्टि में मन्त्री और अमात्य समानार्थक थे । उक्त सभी मित्र युवराज नरवाहनदत्त के उसी प्रकार सेनापति भी थे, जिस प्रकार शास्त्रज्ञ यौगन्धरायण राजा उदयन का मन्त्री भी था और सेनापति भी ।
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अमात्य का पर्याय सचिव भी माना गया है । कालिदास ने भी अमात्य और मन्त्री को समानार्थक ही माना है। 'रघुवंश' से सूचना मिलती है कि अमात्य या मन्त्री के पुत्र युवराज के समवयस्क होते थे : 'अमात्यपुत्रैः सवयोभिरन्वितः' (३.२८) । किन्तु, कौटिल्य ने अमात्य और मन्त्री के लिए जिन सूक्ष्म भेदक रेखाओं का अंकन किया है, वह उपेक्षणीय नहीं है ।
कौटिल्य के विवरण से स्पष्ट है कि मन्त्री और अमात्य दो भिन्न पद थे और अमात्य की अपेक्षा मन्त्री का पद बड़ा था । मन्त्री, मन्त्रिपरिषद् का सदस्य भी होता था और राजा को सुझाव भी दे सकता था, जबकि अमात्य मन्त्रपरिषद् का सदस्य तो होता था, किन्तु मन्त्रिपद प्राप्त करने
१. विभज्यामात्यविभवं देशकालौ च कर्म च ।
अमात्याः सर्व एवैते कार्याः स्युर्न तु मन्त्रिणः ॥
— अर्थशास्त्र, अमात्यनियुक्ति, अधिकरण १ अध्याय ७
२. अर्थशास्त्र : १. ३.७
३. तथा हरिशिखं राजा मुदाज्ञापितवानिति ।
यत्र प्रस्थाप्यते भर्त्ता गन्तव्यं तत्र निर्व्यथम् ॥
सेनापतिश्च मन्त्री च भवान्भवतु सोद्यमः ॥ ( ७. २४-२५)
४. कौटिल्य के अनुसार मन्त्रिपरिषद् के प्रमुख चार सदस्य होते थे । श्रेष्ठता के अनुसार इनका क्रम है : मन्त्री, पुरोहित, सेनापति और युवराज । - अर्थशास्त्र : १. ७.११.