Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
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निर्विवाद है कि मेरुपर्वत की समानता रखनेवाला मन्दरपर्वत जैनों और ब्राह्मणों की दृष्टि में भारतवर्ष के श्रेष्ठ पर्वतों में परिगणनीय रहा
है
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संघदासगणी ने विन्ध्यगिरि की भी साग्रह चर्चा की है। उनके द्वारा निर्दिष्ट कथा-प्रसंगों से स्पष्ट है कि विन्ध्यगिरि की वनाकीर्ण तराई में चोर - पल्लियाँ बसी हुई थीं : (विंझगिरिपायमूले सीहगुहा नाम चोरपल्ली आसि' (श्यामा- विजयालम्भ: पृ. ११४); 'विंझगिरिपायमूले विसमपसे सन्निवे काऊणं चोरियाए जीवइ' (कथोत्पत्ति : पृ. ७) । यह प्रसिद्ध सात कुलपर्वतों में अन्यतम है। इसकी विस्तृत श्रेणी मध्यभारत के उत्तर-पश्चिम में फैली हुई है । विन्ध्यश्रेणी ही उत्तर और दक्षिण भारत की विभाजक रेखा का काम करती है। आधुनिक भूगर्भशास्त्री के अनुसार, छोटानागपुर - प्रमण्डल तथा दक्षिणी बिहार की पहाड़ियाँ विन्ध्यपर्वत की शाखाएँ हैं। आधुनिक समय में यह पर्वतश्रेणी बिहार के राजमहल से गुजरात तक फैली हुई है। 'देवीभागवत' (१०.३.७) तथा 'मार्कण्डेयपुराण' (५७.५१.५५) में भी इसका वर्णन मिलता है। 'मार्कण्डेयपुराण' में तो इस पर्वत के मध्यभाग में नर्मदा के तट तक दक्षिण तराई में असभ्य जातियों के बसने का उल्लेख है । 'मनुस्मृति' (२.२१-२२) में हिमालय और विन्ध्य के मध्यवर्ती प्रदेश को मध्यदेश माना गया है। 'अर्थशास्त्र' के अनुसार, बिल्लौर पत्थर का आयात विन्ध्यपर्वत से होता था। डॉ. मोतीचन्द्र के कथनानुसार, विन्ध्यपर्वत का गूजरीघाट तथा सतपुड़ा का सैन्धवघाट विन्ध्य के दक्षिण जाने के लिए प्राकृतिक मार्ग का काम करते थे। २ विन्ध्यपर्वत की पथ-पद्धति दक्षिण में जाकर समाप्त हो जाती है । जैन साक्ष्य के अनुसार, चामुण्डराय ने मैसूर के श्रमणबेलगोल की विन्ध्यगिरि पर बाहुबलि की प्रख्यात मूर्ति की प्रतिष्ठा (शक-सं. ९५१) कराई थी, जो अपनी विशालता (ऊँचाई : सत्तावन फुट : अट्ठारह मीटर) और कलात्मक सौन्दर्य के लिए भी सुख्यात है ।
इस प्रकार, श्रमणों और ब्राह्मणों में विन्ध्यपर्वत की समानान्तर चर्चा और अर्चा उपलब्ध होती है; क्योंकि यह न केवल भौगोलिक दृष्टि से, अपितु वाणिज्य-व्यवसाय एवं धर्मभावना के. विचार से भी प्रागैतिहासिक महत्त्व से परिमण्डित है ।
संघदासगणी ने अपनी कथा में यथाप्रसंग हिमालय पर्वत की भी चर्चा प्रस्तुत की है । ब्राह्मणों की दृष्टि से यह कुलपर्वत या कुलाचल से कम महत्त्व नहीं रखता। जैनागमों में इसे वर्षधर पर्वतों में परिगणित किया गया है । सम्पूर्ण श्रमण और ब्राह्मण वाङ्मय ऋद्धि और सिद्धि के अप्रतिम प्रतीक एवं देव और मनुष्य के लिए समान रूप से प्रिय और उपास्य हिमालय के वर्णन की विविधता और विशालता से परिव्याप्त है । संघदासगणी के संकेतानुसार भी हिमालय चारणश्रमणों की तपोभूमि था । विद्याधरों के राजा अपनी रानियों के साथ हिमालय - शिखर पर भ्रमणार्थ जाते थे (केतुमतीलम्भ: पृ. ३३२) । 'स्थानांग' (६.८५ ) के अनुसार, जम्बूद्वीप के छह वर्षधर पर्वतों में क्षुद्रहिमवान् और महाहिमवान् (प्रा. चुल्लहिमवंत और महाहिमवंत) को ही प्राथमिकता प्राप्त थी । जैनों की भौगोलिक मान्यता के अनुसार, भारत जम्बूद्वीप के दक्षिण भाग में अवस्थित है । इसके उत्तर में हिमालय है और मध्य में विजयार्द्ध पर्वत । सामरिक भूगोल की दृष्टि से आज भी हिमालय का मूल्य अक्षुण्ण है । यह भारत का सन्तरी या प्री के रूप में प्रसिद्ध है।
१. महेन्द्रो मलयः सह्यः शुक्तिमान् ऋक्षपर्वतः ।
विन्धश्च पारियात्रश्च सप्तैते कुलपर्वताः ॥ (आप्टे के 'संस्कृत-हिन्दी-कोश' से उद्धृत)
२. 'सार्थवाह' (वही) : पृ. २४