Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा इसलिए सभी ब्राह्मण दुःखी हैं। आप कोई चिकित्सा करके उसे अध्ययन के योग्य बना दें। तब शल्यशास्त्र के विशेषज्ञ वसुदेव ने मित्रश्री की प्रसन्नता के लिए तोतले ब्राह्मण बालक की चिकित्सा करना स्वीकार कर लिया। इसके बाद उन्होंने कैंची (प्रा. कत्तरी) लेकर फुरती से उस बालक की काली जिह्वातन्तु काट डाली और उस घाव पर रोहणद्रव्य (घाव भरनेवाला वन्द्रव्यषधौ) लगा दिया। तब, उस बालक की बोली स्पष्ट हो गई (मित्रश्री-धनश्रीलम्भ, पृ. १९८)।
सुश्रुत के अनुसार, यह शल्यक्रिया भी छेद्य अस्त्रकर्म के ही अन्तर्गत है। सुश्रुत ने छेद्य अस्त्रों की संख्या बीस गिनाई है। इनमें 'शरारिमुख' एक है। यह दुहरी चोंचवाले पक्षी के मुख के समान होता है, जिसे लोक में कैंची (कत्तरी < कर्तरी) कहते हैं । 'अष्टांगहृदय' में वाग्भट ने छब्बीस अस्त्रसंख्या दी है, जिनमें 'कर्तरी' का स्पष्ट उल्लेख किया है। अँगरेजी में इसे (पेयर ऑव सीजस) कहा जाता है।
संघदासगणी ने मनुष्य के अतिरिक्त, पशुओं में घोड़े की भी शल्यचिकित्सा का उपदेश किया है । धम्मिल्लहिण्डी की कथा है : धम्मिल्ल ने देखा कि गाँव के निकट गाँव का स्वामी एक घोड़ा लिये हुए था। ग्रामस्वामी को कुछ पुरुषों ने घेर रखा था। पूछने पर धम्मिल्ल को पता चला कि घोड़े के शरीर में शल चुभ गया है। किन्त, शरीर के भीतर धंसे हुए शूल का कोई पता नहीं चल रहा है। अन्त में ग्रामस्वामी ने धम्मिल्ल से आग्रह किया कि इस गाँव में कोई वैद्य नहीं है, इसलिए वह कृपा करके घोड़े के प्राण बचा लें। धम्मिल्ल ने ध्यान से देखा, फिर भी शरीर के भीतर धंसा हुआ शल्य उसे नहीं दिखाई पड़ा। तब परीक्षण के लिए उसने खेत की गीली मिट्टी लेकर घोड़े के समूचे शरीर पर लेप दिया। क्षणभर में शरीर के लेप का वह हिस्सा, जहाँपर शल्य था, सूख गया। तब उस प्रदेश को चीरकर धम्मिल्ल ने शल्य निकल दिया तथा घी और शहद से घाव का मुँह भर दिया। घाव भर जाने के बाद घोड़ा स्वस्थ हो गया (पृ. ५३) ।
सुश्रुत ने त्वचा के भीतर शल्य छिप जाने पर उसके उपचार में बताया है कि त्वचा को लेपन से स्निग्ध एवं स्वेदन से स्विन्न करके मिट्टी, उड़द, जौ, गेहूँ, गोबर, इनको पीसकर लेप कर देना चाहिए। जहाँ सूजन, लाली या वेदना प्रतीत हो, वहाँ शल्य समझना चाहिए। अथवा, जमे हुए घी, मिट्टी या चन्दन घिसकर लेप कर देना चाहिए। जहाँ शल्य की गरमी से घी पिघलने लगता है या चन्दन और मिट्टी का लेप सूखने लगता है, वहाँ शल्य समझना चाहिए।'
स्पष्ट है कि संघदासगणी की कथा में अंकित शल्यचिकित्सा का यह प्रसंग सुश्रुत द्वास यथानिर्दिष्ट शल्योपचार-विधि पर आधृत है। इस प्रकार, 'वसुदेवहिण्डी' में उल्लिखित शल्यक्रिया के सारे प्रसंग, आयुर्वेद के प्राचीन आचार्यों द्वारा उपदिष्ट पद्धति के अनुकूल होने के कारण, संघदासगणी के, अष्टांग आयुर्वेद के अन्तर्भूत, शल्यचिकित्सा के गम्भीर अनुशीलनकर्ता होने की सूचना देते हैं।
१. तत्र, त्वक्प्रनष्टे स्निग्धस्विन्नायां मृन्माषयवगोधूमगोमयमृदितायां त्वचि यत्र संरम्भो वेदना वा भवति, तत्र शल्यं विजानीयात्; स्त्यानघृतमृच्चन्दनकल्कैर्वा प्रदिग्धायां शल्योष्मणाऽऽशु विसरति घृतमुपशुष्यति चालेपो यत्र, तत्र शल्यं विजानीयात् ।" -सूत्रस्थान, २६.१२