Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ
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५. जंगोली, अगदतन्त्र : विषचिकित्सा का शास्त्र, ६. भूतविद्या : देव, असुर, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, पिशाच आदि से ग्रस्त व्यक्तियों की चिकित्सा का शास्त्र, ७. क्षारतन्त्र : वाजीकरणतन्त्र : वीर्यपुष्टि का शास्त्र और ८. रसायन : पारद आदि धातुओं द्वारा की जानेवाली चिकित्सा का शास्त्र । चरक, सुश्रुत आदि में इसी चिकित्साशास्त्र के विकास के रूप में अष्टांग आयुर्वेद की चर्चा उपलब्ध होती है। प्रचलित अष्टांग आयुर्वेद इस प्रकार है : शल्य, शालाक्य, कायचिकित्सा, भूतविद्या, कौमारभृत्य, अगदतन्त्र, रसायनतन्त्र और वाजीकरण ।
_ 'स्थानांग' में व्याधिचिकित्सा के चार पदों का उल्लेख इस प्रकार है : "चउविहे वाही पण्णत्ते, तं जहा-वातिए, पित्तिए, सिंभिए, सण्णिवातिए।" (४.५१५) । अर्थात्, व्याधि चार प्रकार की होती है : १. वातिक : वायुविकार से होनेवाली, २. पैत्तिक : पित्तविकार से होनेवाली, ३. श्लैष्मिक : कफविकार से होनेवाली और ४. सानिपातिक : तीनों के मिश्रण (सत्रिपात) से होनेवाली। इसके अतिरिक्त, 'स्थानांग' में चिकित्सा के अंग, चिकित्सकों के प्रकार आदि की भी चर्चा हुई है (४.५१६-५१७)।
'उत्तराध्ययनसूत्र' में भी विद्या और मन्त्र के द्वारा चिकित्सा करनेवाले मन्त्र और ओषधियों के विशारद शास्त्रकुशल प्राणाचार्यों की चर्चा आई है। साथ ही, चतुष्पाद-चिकित्सा (वैद्य, रोगी, ओषधि और परिचारक) का भी उल्लेख हुआ है (२०.२२-२३)।
इस प्रकार, यह सुनिश्चित है कि संघदासगणी के समय में एवं उनके पूर्व भी आयुर्वेद-विद्या का पूर्णतम विकास हो चुका था। कहना न होगा कि इस कालजयी कथाकार ने प्राचीन काल के उन्नत और विस्तारशील आयुर्वेद-विद्या के विभिन्न तत्त्वों का स्वानुकूल कथा के प्रसंग में जमकर उपयोग किया है। कुल मिलाकर, संघदासगणी ने 'वसुदेवहिण्डी' में इतने अधिक आयुर्वेदिक तत्त्वों का विनिवेश किया है कि यह प्रसंग एक स्वतन्त्र शोध का विषय हो गया है। यहाँ 'वसुदेवहिण्डी' में प्राप्त आयुर्वेद के कतिपय प्रसंग उपन्यस्त किये जा रहे हैं। 'वसुदेवहिण्डी' के एतद्विषयक यथाप्रस्तुत परिमित मूल्यांकन के पाठकों को स्थालीपुलाकन्याय से यह स्पष्ट हो जायगा कि संघदासगणी एक महान् कथाकार ही नहीं थे, अपितु वह भारतीय चिकित्साशास्त्र के भी मर्मज्ञ थे। क्योंकि, वह यह मानते थे कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि स्वस्थ शरीर और दीर्घ आयु से ही सम्भव है, इसलिए दीर्घ आयु और स्वास्थ्य के अभिलाषियों को आयुर्वेद का ज्ञान
और उसके उपदेशों का पालन अवश्य करना चाहिए । इसीलिए, चिकित्साशास्त्रज्ञ कथाकार ने कहा है कि 'बहुकुटुम्बी' लोग स्वास्थ्य की बातों पर विशेष ध्यान देते हैं (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १३४) ।
आयुर्वेदशास्त्र में चिकित्सा-प्रक्रिया की सांगता के लिए मुख्यत: तीन आयामों का उपदेश किया गया है। प्रथम तो रोग का निदान है; द्वितीय है उसकी चिकित्सा और चिकित्सा के क्रम में प्रयुक्त होनेवाली विभिन्न दवाओं के निर्माण में व्यवहृत ओषधियों (जड़ी-बूटियों) के अभिज्ञान तथा उनके रस, गुण, वीर्य, विपाक आदि का परिज्ञान तीसरा आयाम है। ये तीनों आयाम परस्पर सम्बद्ध होते हुए भी अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं। इसलिए, आयुर्वेदिक चिकित्सा-पद्धति में वही वैद्य अधिक सफल हो सकता है, जो रोगों की समीचीन पहचान के साथ ही जड़ी-बूटियों के सम्बन्ध में पूर्ण परिज्ञान रखता है। जड़ी-बूटियों के पूर्ण परिज्ञान के विना उत्तम ओषधि का निर्माण सम्भव नहीं है और उत्तम ओषधि के अभाव में चिकित्सा-कार्य में सफलता असम्भव ही है। रोग का