Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
View full book text
________________
१९४
वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा आयुर्वेद की उत्पत्ति वैदिक काल से ही मानी जाती है। पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार, समुद्र-मन्थन के समय आयुर्वेद के, रुग्जाल से जीर्ण जनता द्वारा प्रशंसित, आदिदेव धन्वन्तरि पीयूषपूर्ण कलश लिये प्रकट हुए थे। धन्वन्तरि के लिए नमस्कार-मन्त्र इस प्रकार है :
आविर्बभूव कलशं दधदर्णवाद्य: पीयूषपूर्णममृतत्वकृते सुराणाम् ।
रुग्जालजीर्णजनताजनितप्रशंसो धन्वन्तरिः स भगवान् भविकाय भूयात् ॥ शरीर, इन्द्रियाँ, मन और चेतन आत्मा, इन चारों के संयोग, अर्थात् जीवन को ही आयु कहते हैं और आयु-सम्बन्धी समस्त ज्ञान को आयुर्वेद । आयु ही शरीर का धारण करती है। इसलिए आयुःकामना ही आयुर्वेद का मूल लक्ष्य है। भावमिश्र ने 'भावप्रकाश' के मुखबन्ध में आयुर्वेद की निरुक्ति बतलाते हुए कहा है :
अनेन पुरुषो यस्मादायुर्विन्दति वेत्ति च ।
तस्मान्मुनिवरैरेष आयुर्वेद इति स्मृतः ।। अर्थात्, आयुर्वेदज्ञ व्यक्ति स्वयं आयु को तो प्राप्त करता ही है, आयु के विषय में भी जानकारी प्राप्त कर लेता है। इसके अतिरिक्त, भावमिश्र ने परम्परागत आयुर्वेद का लक्षण निरूपित करते हुए कहा है : आयुर्वेद वह शास्त्र है, जिसमें आयु, हित और अहित (पथ्यापथ्य), रोग का निदान तथा उसके शमन का उपाय निर्दिष्ट रहता है। श्लोक इस प्रकार है :
आयुर्हिताहितं व्याधेर्निदानं शमनं तथा ।
विद्यते यत्र विद्वद्भिः स आयुर्वेद उच्यते ॥ आयुर्वेद अथर्ववेद की एक शाखा कही जाती है। पौराणिक कथा के अनुसार, जगत्स्रष्टा ब्रह्मा ने प्रजापति दक्ष को आयुर्वेद की प्रणाली का ज्ञान दिया। दक्ष ने दोनों अश्विनीकुमारों को इस कला एवं विज्ञान में पारंगत किया और इन दोनों से इन्द्र ने ज्ञान प्राप्त किया। इन्द्र ने यह ज्ञान भारद्वाज को दिया और इनके आत्रेय, चरक, सुश्रुत आदि अनेक शिष्यों ने आयुर्वेद के ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया। जिस वैद्य ने चरक, सुश्रुत, वाग्भट आदि ग्रन्थों का अध्ययन नहीं किया है, वह यमकिंकर कहा जाता है। इस सम्बन्ध में उक्ति प्रसिद्ध है :
सुश्रुतो न श्रुतो येन वाग्भटे न च वाग्भटः ।
चरको नालोकितो येन स वैद्यो यमकिंकरः ॥ 'वसुदेवहिण्डी' के रचयिता संघदासगणी ने अपने पूर्ववत्ती आयुर्वेदाचार्यों-चरक, सुश्रुत, वाग्भट एवं जैनागम के एतद्विषयक सन्दर्भो का विधिवत् अवलोकन किया था। जैनागमों में 'उत्तराध्ययन' तथा 'स्थानांग' में आयुर्वेद का स्पष्ट उल्लेख हुआ है। 'स्थानांग' में आयुर्वेद के अष्टांग का वर्णन इस प्रकार है : “अट्ठविधे आउवेदे पण्णत्ते, तं जहा—कुमारभिच्चे, कायतिगिच्छा, सालाई, सल्लहत्ता, जंगोली, भूतवेज्जा, खारतंते, रसायणे (८.२६)।" अर्थात्, कुमारभृत्यः १. बालकों का चिकित्साशास्त्र, २. कायचिकित्सा : ज्वर आदि रोगों का चिकित्साशास्त्र, ३. शालाक्य : कान, मुंह, नाक आदि के रोगों की शल्यचिकित्सा का शास्त्र, ४. शल्यहत्या : शल्यचिकित्सा का शास्त्र,
१. कोशकार आप्टे ने आयुर्वेद को ऋग्वेद का उपवेद कहा है।