Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
पर सुलाये और ऊपर से इतनी लकड़ी डालकर आग लगा दे कि वह (अपराधी) जलकर भस्म
जय ।
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कथाकार ने तत्कालीन दण्ड-व्यवस्था में शासन की ओर से बन्दी बनाने की प्रथा का उल्लेख किया है, साथ ही नजरबन्द करने की दण्डनीति का निर्देश भी । वसुदेव को उनके ज्येष्ठ भ्राता राजा समुद्रविजय ने बड़ी गोपनीय रीति से नजरबन्द कराया था । वसुदेव बहुत रूपवान् थे । वह जब उद्यान-यात्रा आदि के लिए घर से बाहर निकलते थे, तब युवतियाँ उन्हें देखकर पागल हो उठती थीं और राज्य में एक प्रकार की लोकोद्वेजना और अस्तव्यस्तता उत्पन्न हो जाती थी । अतएव, नगरपालों की सूचना के आधार पर राजा ने वसुदेव की उद्यान-यात्रा पर प्रतिबन्ध लगा दिया और राज-परिजनों को इस परमार्थ को गोपनीय रखने की चेतावनी दी। साथ ही, वसुदेव को 'बुलवाकर समझाया कि 'दिनभर बाहर घूमते रहते हो मुख की कान्ति धूसर दिखाई पड़ती है, इसलिए घर में ही रहो । कला की शिक्षा में भी ढिलाई नहीं होनी चाहिए।' इस प्रकार, बड़ी चतुराई से वसुदेव को चुपके से घर में ही नजरबन्द ('हाउस - एरेस्ट) कर लिया गया था ।
'वसुदेवहिण्डी' में प्रशासन- व्यवस्था और दण्डविधि से सम्बद्ध कतिपय पदाधिकारियों का भी उल्लेख मिलता है । जैसे: माण्डलिक, महामाण्डलिक, गोमाण्डलिक, दण्डाधिकारी, नगरारक्षक (कोतवाल) आदि । कथाकार ने तीर्थंकर अरनाथ को माण्डलिक कहा है और राजा मेघरथ को महामाण्डलिक के रूप में स्मरण किया है (केतुमतीलम्भ: पृ. ३४७ तथा तत्रैव : पृ. ३३६) । तीर्थंकर नाम - गोत्र वाले राजा ही माण्डलिक और महामाण्डलिक होते थे । आधुनिक अर्थ में जिलाधिकारी के लिए प्रचलित शब्द मण्डलाधीश या महामण्डलाधीश प्राचीन परम्परा के प्रशासकों के ही वर्त्तमान प्रतिरूप हैं । महामाण्डलिक मेघरथ ने ही अहमिन्द्रत्व - पद से च्युत होने के बाद शान्तिस्वामी के पिता राजा विष्वक्सेन के रूप में हस्तिनापुर में पुनर्जन्म ग्रहण किया था । शान्तिस्वामी ने पन्द्रह हजार वर्षों तक माण्डलिक के रूप में प्रशासन किया था और अरस्वामी ने इक्कीस हजार वर्षों तक माण्डलिक का पद सँभाला था (तत्रैव : पृ. ३४०, ३४७) ।
वसन्तपुर के राजा जितशत्रु के दो गोमण्डल थे, जिनमें अनेक प्रकार की उत्कृष्ट और निकृष्ट गायें थीं। इन दोनों मण्डलों की देखरेख के लिए दो गोमाण्डलिक नियुक्त थे, जिनमें एक का नाम चारुनन्दी और दूसरे का नाम फल्गुनन्दी था । चारुनन्दी ने उत्कृष्ट गायों को राजा के नाम
अंकित कर रखा था और निकृष्ट गायों को अपने नाम से। ठीक इसके विपरीत, फल्गुनन्दी ने निकृष्ट गायों को राजा के नाम से और उत्कृष्ट गायों को अपने नाम से अंकित किया था । फल्गुनन्दी-कृत गायों के वर्ग-विभाजन से राजा रुष्ट हो गया और उसका वध करवा दिया। इस प्रसंग से भी तत्कालीन उग्र दण्डनीति का संकेत प्राप्त होता है । पदे पदे मृत्युदण्ड उस युग की सामान्य घटना थी ।
संघदासगणी ने दण्डाधिकारी या सेनाधिकारी के लिए 'दण्डभोगिक' और 'भटभोगिक' शब्दों का प्रयोग किया है। यों, भोगिक शब्द का स्वतन्त्र अर्थ 'पाइयसद्दमहण्णवो' के अनुसार ग्रामाध्यक्ष या गाँव का मुखिया है, किन्तु आप्टे महोदय ने भोगिक का अर्थ अश्वपाल या साईस
१. पुमांसं दाहयेत्पापं शयने तप्त आयसे ।
अभ्यादश्च काष्ठानि तत्र दह्येत पापकृत् ॥ ( ८.३७२)