Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा ऋचाओं का निर्माण भी वनों में प्रतिष्ठित आश्रमों में हुआ था। इसीलिए, वेद की एक शाखा की संज्ञा ही 'आरण्यक' हो गई। कहना न होगा कि पुरायुग में वन प्रव्रजित या संन्यस्त जीवन के तप का प्रमुख केन्द्र थे। यह 'वानप्रस्थ' आश्रम की निरुक्ति से भी सिद्ध है : ‘वाने वनसमूहे प्रतिष्ठते इति ।' यह उल्लेखनीय है कि वेदों, उपनिषदों, पुराणों, स्मृतियों, सूत्रग्रन्थों आदि में समस्त भारतीय संस्कृति के भव्योज्ज्वल रूप प्रतिनिहित हैं, जिनकी रचना वन के आश्रमों में हुई । उस युग में वन के आश्रमों की प्राकृतिक या ग्रामीण संस्कृति से ही नागरिक संस्कृति या राजतन्त्रात्मक संस्कृति का नियन्त्रण होता था। भारतीय संस्कृति के उद्भावक प्राकृत-कथाग्रन्थों के मेरुदण्ड-स्वरूप 'वसुदेवहिण्डी' में वन और वनस्पतियों का उल्लेख स्वाभाविक है।
'वसुदेवहिण्डी' में, पहाड़ों पर और वनों में तीर्थंकरों एवं साधुओं के तप करने की भूरिश: चर्चा हुई है। इस सन्दर्भ में बिहार के विपुलाचल, मन्दराचल और सम्मेदशिखर पर्वत तो इतिहास प्रसिद्ध हैं और संघदासगणी ने भी इनका साग्रह उल्लेख किया है। कथाकार द्वारा वर्णित वनों में भी भूतरत्ना अटवी, कुंजरावर्त अटवी, विन्ध्यगिरि की तराई के जंगल, जलावर्ता अटवी, चन्दनवन, बिलपंक्तिका अटवी आदि का अपना उल्लेखनीय स्थान है। ये अटवियाँ अपनी रमणीयता प्राकतिक सम्पदा और भयंकरता की दष्टि से भी अद्वितीय हैं। ज्ञातव्य है. वसुदेव अपने भ्रमण के क्रम में समुद्र और नदियों, पर्वतों और जंगलों की ही खाक छानते रहे
और अपने सहज संघर्षशील जीवन, साहस, निर्भयता तथा बौद्धिक कुशलता के कारण स्पृहणीय लब्धियों के प्रशंसनीय पात्र बने। यहाँ संघदासगणी द्वारा चित्रित कतिपय भयानक वनों का परिदर्शन अपेक्षित है।
कथाकार ने विन्ध्यगिरि के पादमूल (तराई) के जंगलों में चोरपल्ली के होने का उल्लेख किया है। आधुनिक काल में भी चम्बल के बीहड़ों में अवस्थित डाकुओं के सनिवेश 'वसुदेवहिण्डी' में वर्णित प्राचीन चोरपल्ली-परम्परा के ही अवशेष के द्योतक है। जयपुरवासी विन्ध्यराज का ज्येष्ठ पुत्र प्रभव, अपने पिता से विद्रोह करके, विन्ध्यगिरि की विषम प्रदेशवाली तराई में सनिवेश बनाकर, चौरवृत्ति से जीवन-यापन करता था (कथोत्पत्ति : पृ. ७)। विन्ध्यगिरि की तराई में ही 'अमृतसुन्दरा' नाम की चोरपल्ली थी। अर्जुन नाम का चोरों का अधिपति अपने प्रताप से उस पल्ली का शासन करता था (धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ४८)। इसी प्रकार, अंजनगिरि के जंगलों में अशनिपल्ली नामक चोरों का सन्निवेश था, जिसके अधिपति की, विविध घातक अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित अपनी चोरसेना थी और उसके सेनापति का नाम अजितसेन था (तत्रैव : पृ. ५६)। पुन: विन्ध्यगिरि की तराई में ही सिंहगुहा नाम की चोरपल्ली का उल्लेख हुआ है, जिसका सेनाधिप अपराजित नाम का था। उसकी पत्नी का नाम वनमाला था, जिससे उसके दस पुत्र उत्पन्न हुए थे। अपने चौरकार्य के क्रम में उस अपराजित ने अनेक पाप अर्जित किये थे। फलतः, मरने के बाद उसे नरक की सातवीं भूमि का नारकी होना पड़ा था (श्यामा-विजयालम्भ : पृ. ११४)।
वसुदेव, परिभ्रमण के क्रम में हिमालय पर्वत को देखते हुए जब उत्तर दिशा की ओर जा रहे थे, तब पूर्वदिशा की ओर जाने की इच्छा से उन्होंने कुंजरावर्त अटवी में प्रवेश किया था, जहाँ उन्हें एक पद्मसरोवर दिखाई पड़ा था, जो अनेक जलचर पक्षियों के कलरव से बड़ा मनोरम मालूम होता था। नाम की अन्वर्थता के अनुसार, कुंजरावर्त अटवी में सामान्य हाथियों के अतिरिक्त मदान्ध