Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ
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वेतालविद्या (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १५०; केतुमतीलम्भ : ३१७-३१९) : (क) इस जादूविद्या से किसी के भी शरीर को मृत दिखलाया जा सकता था। विद्याधर इस विद्या का प्रयोग विशेषत: उस स्थिति में करते थे, जब वे किसी विवाहिता स्त्री को अपने काम के अधीन बनाना चाहते थे। गन्धर्वदत्तालम्भ में कथा है कि अमितगति विद्याधर का प्रतिनायक धूमसिंह विद्याधर ने वेतालविद्या द्वारा उसकी (अमितगति की) विद्याधरी पत्नी सुकुमारिका को अपहत कर अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए उसे (सुकुमारिका को) उसके पति (अमितगति) का मृत शरीर दिखलाया था और कहा था : “यही तुम्हारा स्वामी है। मेरी हो जाओ या जलती आग (चिता) में प्रवेश करो।" __ (ख)केतुमतीलम्भ (पृ. ३१७) में भी वेतालविद्या से सम्बद्ध एक कथा है : राजा श्रीविजय और रानी सुतारा के अपहरण के बाद पोतनपुर के सभी पुरजन किंकर्तव्यविमूढ़ थे। तभी, कुण्डल धारण किये चंचलगति दीपशिख विद्युत् के समान आकाशमार्ग से नीचे उतरा और वह, सबको जयाशीर्वाद देकर कहने लगा : मैं सम्भिन्नश्रोत्र ज्योतिषी का पुत्र हूँ । हम पिता-पुत्र वैताढ्य-शिखर पर रथनूपुरचक्रवाल नगर के अधिपति की उद्यान-श्री का स्वच्छन्द अनुभव करके ज्योतिर्वन-प्रदेश की ओर प्रस्थित हुए। तभी, हमने चमरचंचानगर के अधिपति अशनिघोष को किसी स्त्री को चुराकर ले जाते देखा। वह स्त्री चिल्ला रही थी : “हा श्रीविजय ! अमिततेज ! मुझे बचाइए। मुझ अनाथ और बेबस का अपहरण किया जा रहा है !” उस स्त्री का क्रन्दन सुनकर हमने अपहरण करनेवाले अशनिघोष का पीछा किया। तभी हमें विपत्ति में पड़ी, ग्रह से अभिभूत सशरीर चिन्ता के समान रानी सुतारा दिखाई पड़ी। जब हम दोनों पिता-पुत्र अशनिघोष को ललकार कर उससे जूझने के लिए आमने-सामने खड़े हुए, तभी रानी सुतारा ने हमें आदेश दिया : “जूझना व्यर्थ है। शीघ्र ज्योतिर्वन जाओ। वहाँ मेरे स्वामी वेतालविद्या से पीड़ित हो रहे हैं।” रानी के आदेशानुसार हम शीघ्र ही ज्योतिर्वन पहुँचे। वहाँ हमने राजा को चिता पर आग की लपटों के बीच रानी के प्रतिरूप (नकली रानी) के साथ स्वर्णकान्ति के समान सुलगते देखा। मेरे पिता (सम्भिन्न श्रोत्र) ने विद्या के बल से पानी उत्पन्न कर चिता बुझा दी। तब, वेतालविद्या घोर अट्टहास करके लुप्त हो गई।
(ग) वेतालविद्या से मोहन (हिप्नॉटिज्म) का भी काम लिया जाता था। अशनिघोष जब शरणापन्न हुआ, तब उसने स्पष्टीकरण किया कि वह भ्रामरी-विद्या' सिद्ध करने के उद्देश्य से भगवान् संजयन्त के आयतन में एक सप्ताह का उपवास करके लौट रहा था, तभी ज्योतिर्वन के निकट उसे प्रभामयी रानी सुतारा दिखाई पड़ीं। उनको देखते ही उसके मन में परम स्नेहानुराग उत्पन्न हो आया। अब वह वहाँ से आगे नहीं बढ़ पा रहा था। तब, उसने मृगशावक का रूप
१. संघदासगणी ने इसका विशेष विवरण नहीं दिया है। शाक्ततन्त्र के अनुसार, भ्रामरी दुर्गा का पर्याय है। मार्कण्डेयपुराणान्तर्गत दुर्गासप्तशती (११५२-५४) में अपनी भ्रामरी संज्ञा की निरुक्ति करते हुए देवी ने स्वयं कहा है:
यदारुणाख्यत्रैलोक्ये महाबाधां करिष्यति ॥ तदाहं प्रामरं रूपं कृत्वासंख्येयषट्पदम् । त्रैलोक्यस्य हितार्थाय वधिष्यामि महासुरम् ॥
प्रामरीति च मां लोकास्तदा स्तोष्यन्ति सर्वतः ॥ अर्थात्, जब अरुण नामक दैत्य तीनों लोकों में भारी उपद्रव मचायगा, तब मैं तीनों लोकों का हित करने के लिए छह पैरोंवाले असंख्य प्रमरों का रूप धारण करके उस महादैत्य का वध करुगी। उस समय सब लोग 'प्रामरी' के नाम से चारों ओर मेरी स्तुति करेंगे।