Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा __जल्लौषधि और सर्वोषधि की भाँति श्लेष्मौषधि को भी लब्धि-विशेष माना गया है, जिसमें शरीर की धातुएँ ओषधि का काम करती हैं। इन्द्र को चूँकि लब्धिविद्या सिद्ध थी, इसलिए उन्होंने राजा के शरीर पर अपना श्लेष्मा चुपड़ दिया था। श्लेष्मौषधि का यह एक पारम्परिक अर्थ भी सम्भव है। निर्वाणप्राप्त तीर्थंकर के शरीर के भस्म से शरीर-पीड़ा के नष्ट होने की बात भी इसी तथ्य की पारम्परिकता को संकेतित करती है (सोमश्रीलम्भ : पृ. १८५) ।
प्रथम श्यामाविजयालम्भ के दो इभ्यपुत्रों की कथा के प्रसंग में, नन्दिसेन द्वारा की गई असाध्य अतिसार के रोगी की परिचर्या (वैयावृत्त्य) की, देवों द्वारा परीक्षा लेने की घटना का उल्लेख हुआ है। इसमें नन्दिसेन अतिसार की शान्ति के लिए 'पानक' की खोज करता है (पृ. ११७) । अतिसार से ग्रस्त वह रोगी तृषा से अभिभूत था। रोग के लक्षण के अनुसार वह रोगी पित्तातिसार से ग्रस्त था; क्योंकि उसे प्यास लग रही थी और उसके मल से दुर्गन्ध आ रही थी। अतएव, पानक (शरबत) का सेवन उसके लिए आवश्यक था। चरक ने पित्तातिसार के उक्त लक्षण बताते हुए उसकी चिकित्सा में पेय, तर्पण आदि के प्रयोग का आदेश किया है। चरक-प्रोक्त पानक (शरबत) का एक नुस्खा इस प्रकार है : इन्द्रजौ के फल और छाल को अतीस के साथ मिलाकर पीस लेना चाहिए और उन्हें चावल के पानी (धोअन) में घोलकर, शहद मिलाकर शरबत बना लेना चाहिए। यह पानक पित्तातिसार को नाश करता है। इस प्रकार, संघदासगणी द्वारा अतिसार के रोगी के लिए किया गया पानक का निर्देश आयुर्वेदशास्त्र के सर्वथा अनुकूल है।
यहाँ नन्दिसेन को रोगी के उत्तम परिचारक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। रोगी उसे गालियाँ दे रहा था, यहाँतक कि उसने उसपर दुर्गन्धपूर्ण मल का भी त्याग कर दिया। फिर भी, वह रोगी कि हितभावना के साथ उसकी सेवा में लगा रहा। चरक, सुश्रुत आदि ने आयुर्वेद की चिकित्सा के चार चरणों का उल्लेख किया है : वैद्य, औषध, परिचारक और रोगी। परिचारक के लिए चार गुण अनिवार्य हैं : सेवाकर्म को जाननेवाला, कर्मकुशल, रोगी के प्रति प्रीति रखनेवाला तथा पवित्रता का खयाल करनेवाला। यहाँ नन्दिसेन, निश्चय ही, आयुर्वेदोक्त परिचारक के गुणों से विभूषित दिखाया गया है।
अपच्य पदार्थ खाने से विसूचिका (हैजा) रोग उत्पन्न होता है, ऐसा आयुर्वेद के निदानकारों का कथन है। संघदासगणी ने लिखा है कि पूर्वभव में अग्निभूति और वायुभूति शृगाल और शृगाली थे। उन्होंने भूख से व्याकुल होकर चमड़े की बनी जुए की सूखी रस्सी खा ली थी, इसलिए वे दोनों विसूचिका रोग से पीड़ित होकर मर गये (पीठिका)। सुश्रुत ने कहा है कि परिमित (वस्तु और मात्रा के अनुसार) आहार-विधि को न जाननेवाले, दूषित आमाशयवाले, अजितेन्द्रिय और भोजनलम्पट मूर्ख लोग विसूचिका रोग से पीड़ित होते हैं।
१. सक्षौद्रातिविषं पिष्ट्वा वत्सकस्य फलत्वचाम् । पिबेत् पित्तातिसारघ्नं तण्डुलोदकसंयुतम् ॥
- चरकसंहिता, चिकित्सितस्थान, अ. १९, श्लोक ५७ .. २. चरकसंहिता, सूत्रस्थान,९.८ ३. सुश्रुतसंहिता, उत्तरतन्त्र,५६.५