Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा देवता के भव में अवधि-ज्ञानी होने के कारण वह अपने देश की सीमा पर अपनी दिव्य शक्ति से एक सार्थ के प्रतिरूप में अवतीर्ण होकर व्यापार करने लगा और तीन ही महीने में उस देव-सार्थवाह ने पहले मित्र से कई गुना अधिक देवद्रव्य अर्जित किया। बारह वर्षों तक लगातार क्लेश उठाकर धन कमानेवाला वणिक्पुत्र बाजी हार गया। देव-सार्थवाह ने मित्रों से कहा : 'आप आश्चर्यित न हों, मैंने तपस्या के बल से यह धन अर्जित किया है।' कथा सुनाकर सुप्रभ ने कहा : इसी कारण से तपस्वियों को अतिशय लाभ देनेवाली तपस्या प्रिय है। शरीर नष्ट होने पर भी देवलोक में तपस्या का फल प्राप्त होता है । दूसरे तपोहीन व्यक्ति का कर्म अल्प लाभ देनेवाला है तथा वह शरीर के साथ ही नष्ट हो जाता है। सप्रभ से यह कथा सनकर समित्रा को विश्वास हो गया कि परलोक है और धर्म का फल भी है (पुण्ड्रालम्भ : पृ. २१५-२१७)।
___इस कथा से स्पष्ट है कि देवलोक या परमात्मा का लोक ही परलोक है और सामान्य "भौतिक श्रम से धर्म या तपस्या का श्रम अल्पकाल में ही अधिक फलदायक है। 'जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश' में परलोक की परिभाषा उपस्थापित करते हुए कहा गया है, जिसके परमात्मस्वरूप में जीवादि पदार्थ देखे जाते हैं, या केवलज्ञान द्वारा, जिसकी अनुभूति होती है, उसका नाम परलोक है।' अथवा पर, अर्थात् उत्कृष्ट वीतराग चिदानन्द शुद्धस्वभाव आत्मा का लोक ही परलोक है। इस प्रकार, कथाकार ने आगमोक्त पद्धति से प्रमाणित परलोक के अस्तित्व और धर्मफल की प्राप्ति की गूढ भावना को कथा के माध्यम से सहजग्राह्य बना दिया है।
कथाकार ने योगमार्ग में प्रचलित परकाय-प्रवेश से सम्बद्ध कथा का भी उल्लेख किया है। चन्दनतिलक और विदिततिलक नामक दो विद्याधर राजपुत्रों ने दो कुक्कुटों में अपनी-अपनी आत्मा को संक्रान्त कर दिया था (केतुमतीलम्भ : पृ. ३३५)। इसी प्रकार, सुरूप यक्ष ने मेघरथ को धर्म से विचलित करने के लिए कबूतर और बाज पक्षियों की आत्माओं में, मनुष्यभाषी के रूप में अपने को संक्रान्त किया था (तत्रैव : पृ. ३३८) । इस प्रकार के कार्य प्रायः पूर्वजन्म के वैर या स्नेह के अनुबन्धवश ही किये जाते थे। और फिर, इस प्रकार के पात्र, किसी साधु या चारणश्रमण द्वारा पूर्वभव का स्मरण कराने पर वैर या स्नेह से मुक्त होकर देवत्व या मोक्ष के लिए प्रयल करते थे।
मोक्ष, निर्वाण या सिद्धि के कथा-प्रसंगों से 'वसुदेवहिण्डी' आपाततः परिपूर्ण है। दिगम्बरसम्प्रदाय में स्त्रियों को मोक्ष का अधिकार प्राप्त नहीं है। वे पुरुष-भव में आने पर ही मोक्षलाभ की अधिकारिणी होती हैं। किन्तु, श्वेताम्बर-सम्प्रदायानुयायी कथाकार ने स्त्रियों की सिद्धि की भी अनेक कथाएँ परिनिबद्ध की हैं। स्पष्ट है कि दिगम्बरों के कट्टरपन की तुलना में श्वेताम्बर बहुत अधिक उदार हैं। मोक्ष के सन्दर्भ में जैनदृष्टि यह है कि आत्मा परिणामी होने के कारण, प्रतिसमय, अपनी मानसिक, वाचिक और शारीरिक क्रियाओं से तत्तत् प्रकार के शुभाशुभ संस्कारों में स्वयं परिणत होता जाता है और वातावरण को भी उसी प्रकार से प्रभावित करता है। ये आत्मसंस्कार अपने पूर्वबद्ध कर्मशरीर में कुछ नये कर्म-परमाणुओं का सम्बन्ध कराते हैं, जिनके परिपाक से वे संस्कार, आत्मा में अच्छे या बुरे भाव उत्पन्न कर देते है। आत्मा स्वयं उन संस्कारों का कर्ता है
और स्वयं ही उनके फलों का भोका भी है। जब यह अपने मूल स्वरूप की ओर दर्शनोन्मुख १.(क) लोक्यन्ते दृश्यन्ते जीवादिपदार्था यस्मिन् परमात्मस्वरूपे यस्य केवलज्ञानेन वा स भवति लोकः।
(पृ. २३) (ख) पर उत्कृष्टो वीतरागचिदानन्दैकस्वभाव आत्मा तस्य लोकः । (तत्रैव)