Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan

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Page 580
________________ ५६० वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा (आनन्दवर्द्धन : 'ध्वन्यालोक': ३.५ की वृत्ति) । वाग्विन्यास की दृष्टि से भी कथाकार की रचना-रीति अतिशय विलक्षण है (राजशेखर : 'काव्यमीमांसा' : अ. १)। भोज के मत से, गत्यर्थ 'रीङ्' धातु से 'रीति' शब्द निष्पन्न हुआ है ('सरस्वतीकण्ठाभरण' : २.५१) और नमिसाधु वर्णन की भंगी या विच्छित्ति को रीति कहते हैं (रुद्रट-कृत 'काव्यालंकारवृत्ति' : २.३) । तदनुकूल कथाकार की वर्णन-शैली में गतिशीलता तो है ही, वर्णन में भंगीगत विच्छित्ति भी है। विश्वनाथ ('साहित्यदर्पण' : ९.१) की रीति-परिभाषा के अनुसार कथाकार की पद-संघटना कथाकृति की मनोरम अंगरचना की भाँति हृदयावर्जक है। 'वसुदेवहिण्डी' में जहाँ साहित्यशास्त्रीय पांचाली रीति के माध्यम से कथा का वर्णन उपन्यस्त किया गया है, वहाँ कथाकार की भाषा में ईषत् समास (पाँच-छह पदों तक का समास) और ईषत् अनुप्रास से युक्त शिष्ट वाक्यों का प्रयोग दृष्टिगत होता है। पद प्राय: पृथक् और प्रसिद्ध हैं, साथ ही कोमल वर्गों की भी अनुगुण योजना हुई है। जैसे : (क) “आसी य इह पुरीए चिररूढरपरंपरागओ उभयजोणिविसुद्धे कुले जातो सेट्ठी भाणू णाम समणोवासओ अहिगयजीवाजीवो साणुक्कोसो। तस्स तुल्लकुलसंभवा भद्दा नाम भारिया, सा उच्चपसवा पुत्तमलभमाणी देवयणमंसण-तवस्सिजणपूयणरया पुत्तत्थिणी विहरइ।" (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १३३) (ख) “इहं सोमदेवो राया पिउ-पियामहपरंपरागयरायलच्छी पडिपालेइ। तस्स अग्गमहिसी सोमचंदा नाम पगतिसोमवयणा। तेसिं दुहिया सोमसिरी कण्णा। तुब्मेहिं जीसे जीवियं दिण्णं, तीसे पिउणा सयंवरो दिण्णो। समागया य रायाणो, जे ताए कुल-शील-रूव-विभव-सम्मया।" (सोमश्रीलम्भ : पृ. २२२) साहित्यशास्त्र में परिभाषित वैदर्भी रीति का आश्रय लेकर कथाकार ने जहाँ जिस अंश को उपन्यस्त किया है, वहाँ उसमें उन्होंने प्राय: असमस्त पदों का प्रयोग किया है। समास की जब भी आवश्यकता हुई है, तब दो-तीन पदों तक को ही समस्त रूप में प्रस्तुत किया है। रसपेशलता और श्रुतिमाधुर्य तो इस रीति की अपनी अनन्य विशेषता है ही। दो-एक उदाहरण द्रष्टव्य हैं : (क) “ततो संवरियदुवारे वासघरे कुसुमेहिं सेतेहिं का वि देवया थविया णाए, कयमच्चणं। सुमणसा य उवगया णिसाए, ततो मं भणति-अज्जउत्त! अरिहह देवयासेसं मोदगा उवणीया। ते मया तीसे अणुमएण वयणे पक्खित्ता। तेहिं मे निव्वातं सरीरं, ठितो मणोसहावो। ततो मज्जभरियं मणिभायणं उक्खित्तं-पिब ति। मया भणिया-पिए! न पिबामि मज्जं गुरूहिं अणणुण्णायं ति। सा भणति-न एत्य नियमलोवो गुरुवयणाइक्कमो वा देवयासेसो त्ति, पिबह मा मे नियमसमत्तीए कुणह विग्धं, कुणह पसायं, अलं वियारेण।... निद्दागममयपरिवड्डीए सुमिणमिव पस्समाणो पसुत्तो म्हि।" (वेगवतीलम्भ : पृ. २२६) (ख) “देव अहं गतो गिरितडं दिवो य मया सो पुहवितलतिलओ मणस्स अच्छेरयभूओ. विज्जासाहणववएसेण य निणीओ गामाओ पव्वयकडयसंसिए य पएसे. विमाणं जंतमयं रज्जुपडिबद्धं विलइओ राओ. ततो णं गगणगमणसंठियं निस्संदं नेमो. विभाए च नाऊण 'हीरामि' त्ति पलाओ, महाजवो न सक्किओ गहेऊ।" (कपिलालम्भ : पृ. १९९) कथाकार संघदासगणी ने अपनी रचना-प्रक्रिया के क्रम में भाषा-शैली का प्रयोग करते समय साहित्यिक अनुशासन का प्राय: सतर्कतापूर्वक पालन किया है। उनकी भाषा में 'अस्थाने प्रयोग'

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