Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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स्थान ३ उद्देशक १ 0000
पोग्यले परियाइत्ता एगा विगुव्वणा, अब्धंतरए पोग्गले अपरियाइत्ता एगा विगुव्वणा, अब्यंतरे पोग्गले परियाइत्ता वि अपरियाइत्ता वि एगा विगुव्वणा । तिविहा विगुव्वणा पण्णत्ता तंजहा - बाहिरब्धंतरए पोग्गले परियाइत्ता एगा विगुव्वणा, बाहिरब्धंतरए पोग्गले अपरियाइत्ता एगा विगुव्वणा, बाहिरब्धंतरए पोग्गले परियाइत्ता वि अपरियाइत्ता विएगा विगुव्वणा ॥ ५६ ॥
कठिन शब्दार्थ - विगुव्वणा - विकुर्वणा, बाहिरए - बाह्य-बाहर के, पोग्गले - पुद्गलों को, परियाइत्ता - ग्रहण करके, अपरियाइत्ता - ग्रहण न करके, अब्यंतरे - आभ्यन्तर, बाहिरब्धंतरए - बाहरी और आभ्यंतर ।
भावार्थ - विकुर्वणा तीन प्रकार की कही गई है यथा भवधारणीय-मूल शरीर जितने क्षेत्र को अवगाहन कर रहा हुआ है उस क्षेत्र से बाहर के पुद्गलों को वैक्रिय समुद्घात द्वारा ग्रहण करके नवीन रूप बनाना यह एक विकुर्वणा है । २. बाहरी पुद्गलों को ग्रहण न करके सिर्फ भवधारणीय रूप रहना, यह एक ३. बाहरी पुद्गलों को ग्रहण करके और ग्रहण न करके भी यानी भवधारणीय शरीर में ही कुछ विशेषता करना यह एक विकुर्वणा है। विकुर्वणा तीन प्रकार की कही गई है M 'यथा- १. आभ्यन्तर यानी भवधारणीय और औदारिक शरीर के अन्दर के पुद्गलों को ग्रहण करके वैक्रिय करना एक विकुर्वणा है । २. आभ्यन्तर पुद्गलों को ग्रहण न करके वैक्रिय करना एक विकुर्वणा है और ३. आभ्यन्तर पुद्गलों को ग्रहण करके और ग्रहण न करके भी वैक्रिय करना, यह एक विकुर्वणा है। अथवा दूसरे प्रकार से विकुर्वणा तीन प्रकार की कही गई है यथा १. बाहरी और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के पुद्गलों को लेकर वैक्रिय करना यह एक विकुर्वणा है । २. बाहरी और आभ्यन्तर पुद्गलों को ग्रहण न करके वैक्रिय करना यह एक विकुर्वणा है । ३. बाहरी और आभ्यन्तर पुद्गलों को ग्रहण करके और ग्रहण न करके वैक्रिय करना यह एक विकुर्वणा है । तत्त्व केवलिगम्य है।
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विवेचन - भवधारणीय (मूल शरीर) शरीर को अवगाह कर नहीं प्राप्त हुए (स्पर्श कर नहीं रहे हुए) बाहर के क्षेत्र प्रदेश में रहे हुए बाह्य पुद्गलों को वैक्रिय समुद्घात से ग्रहण कर जो विकुर्वणा की जाती है उसे उत्तर वैक्रिय रूप पहली विकुर्वणा कहते हैं। जो बाह्य पुद्गलों को ग्रहण नहीं करके विकुर्वणा की जाती है उसे भवधारणीय रूप दूसरी विकुर्वणा कहते हैं। बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके और नहीं ग्रहण करके जो भवधारणीय शरीर के लिए कुछ विशेष करने रूप विकुर्वणा की जाती है वह तीसरी विकुर्वणा है ।
विकुर्वणा का एक अर्थ शोभा (विभूषा) करना भी होता है। जिसमें १. बाह्य पुद्गल - वस्त्र
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