Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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हास्योत्पत्ति, अंतर, भृतक, पुरुष भेद
उहिँ ठाणेहिं हासुप्पत्ती सिया तंजहा - पासित्ता, भासित्ता, सुणित्ता, संभरित्ता । चडव्विहे अंतरे पण्णत्ते तंजहा - कटुंतरे, पम्हंतरे, लोहंतरे, पत्थरंतरे । एवामेव इत्थिए वा पुरिसस्स वा चउव्विहे अंतरे पण्णत्ते तंजहा - कटुंतर समाणे, पम्हंतर समाणे, लोहंतर समाणे, पत्थरंतर समाणे । चत्तारि भयगा पण्णत्ता तंजहा दिवस भयए, जत्ता भयए, उच्चत्त भयए, कब्बाल भयए । चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता तंजहा संपागड पडिसेवी णाममेगे णो पच्छण्णपडिसेवी, पच्छण्णपडिसेवी णाममेगे णो संपागडपडिसेवी, एगे संपागडपडिसेवी वि पच्छण्णपडिसेवी वि, एगे णों संपागडपडिसेवी णो पच्छण्णपडिसेवी ॥ १४१ ॥
कठिन शब्दार्थ - हासुप्पत्ती - हास्य की उत्पत्ति, संभरित्ता याद करके, अंतरे - अन्तर, कट्टंतरे - काष्ठान्तर, पम्हंतरे पक्ष्मान्तर, लोहंतरे लोहान्तर, पत्थरंतरे प्रस्तरान्तर, भयगा- भृतक, जत्ताभयए - यात्रा भृतक, उच्चत्तभयए उच्चता भृतक नियमित समय के लिए कार्य करने वाला नौकर, कब्बालभयए- कब्बाड भयए कब्बाड भृतक - ठेके पर काम करने वाला नौकर, संपागडपडिसेवी- संप्रकट प्रतिसेवी प्रकट रूप से सेवन करने वाला, पच्छण्ण पडिसेवी प्रतिसेवी गुप्त रूप से सेवन करने वाला ।
प्रच्छन्न
भावार्थ - विदूषक एवं भाण्डादिक की चेष्टा को देख कर, विस्मयकारी वचन बोल कर, विस्मयकारी वचन सुन कर और वैसी बातों को याद करके, इन चार कारणों से हास्य की उत्पत्ति होती है । चार प्रकार के दृष्टान्त रूप अन्तर कहे गये हैं यथा काष्ठान्तर अर्थात् एक काष्ठ से दूसरे काष्ठ में अन्तर जैसे एक चन्दन, दूसरा नीम आदि । पक्ष्मान्तर अर्थात् एकं प्रकार के कपास, रूई में दूसरे प्रकार के कपास, रूई आदि से कोमलता आदि का फर्क । लोहान्तर अर्थात् एक लोहा पदार्थों को काटने में तीक्ष्ण और दूसरा मोटा अतीक्ष्ण । प्रस्तरान्तर यानी एक पत्थर से दूसरे पत्थर में अंतर, जैसे चिन्तामणि रत्न और कंकर । इसी प्रकार एक स्त्री का दूसरी स्त्री से और एक पुरुष का दूसरे पुरुष से चार प्रकार का अन्तर कहा गया है यथा - काष्ठान्तर समान अर्थात् एक विशिष्ट पदवी के योग्य और दूसरा अयोग्य । पक्ष्मान्तर समान यानी एक का वचन कोमल और दूसरे का कठोर । लोहान्तर समान अर्थात् एक स्नेह का छेदन करने वाला और दूसरा स्नेह का छेदन न करने वाला । प्रस्तरान्तर समान अर्थात् एक मन चिन्तित मनोरथ को पूरण करने वाला तथा गुणवान् और वन्दनीय और दूसरा गुणरहित अवन्दनीय । चार प्रकार के भृतक यानी नौकर कहे गये हैं यथा दिवस भृतक यानी प्रतिदिन पैसे देकर कार्य करने के लिए रखा हुआ नौकर । यात्रा भृतक यानी विदेश जाने आने में साथ रहने वाला
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स्थान ४ उद्देशक १
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