Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 422
________________ स्थान ४ उद्देशक ४ ००००००००0000000 सेयंसे- श्रेष्ठ, पावंसे पापी, आघवइत्ता प्ररूपक, परिभावइत्ता - प्रभावक, उंछजीविसंपण्णे - उञ्छ जीविका सम्पन्न - एषणा आदि समिति का गवेषक, पवालत्ताए प्रवाल रूप से, रुक्खविगुव्वणावृक्ष विकुर्वणा । Jain Education International - - भावार्थ - चार प्रकार की व्याधि कही गई है यथा - वातसम्बन्धी, पित्तसम्बन्धी, कफसम्बन्धी और सान्निपातिक । चार प्रकार की चिकित्सा कही गई है यथा - विदया, औषधि, आतुर यानी रोगी का वैदय के प्रति विश्वास और परिचारक यानी रोगी की अच्छी तरह सेवा करना । चार प्रकार के चिकित्सक यानी इलाज करने वाले कहे गये हैं यथा कोई वैदय अपनी ही चिकित्सा करता है किन्तु दूसरों की चिकित्सा नहीं करता है । कोई एक वैदय दूसरों की चिकित्सा करता है किन्तु अपनी चिकित्सा नहीं करता है । कोई एक वैदय अपनी चिकित्सा भी करता है और दूसरों की चिकित्सा भी करता है । कोई एक वैदय न तो अपनी चिकित्सा करता है और न दूसरों की चिकित्सा करता है । 1 चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं यथा- कोई एक अपने शरीर का खून निकालने के लिए व्रण यानी छेद करता है किन्तु उस व्रण का स्पर्श नहीं करता है । कोई एक व्रण का स्पर्श करता है किन्तु स्वयं व्रण नहीं करता है । कोई एक स्वयं व्रण करता है और उसका स्पर्श भी करता है । कोई एक न तो स्वयं व्रण करता है और न उसका स्पर्श करता है । इसी प्रकार भाव व्रण यानी अतिचार सम्बन्धी चार भांगे होते हैं । यथा कोई अतिचार सेवन करता है किन्तु उसकी आलोचना कर लेने से तथा उसका बारबार स्मरण न करने से पापबन्ध नहीं करता है कोई स्वयं तो अतिचार सेवन नहीं करता है किन्तु दूसरे के द्वारा अतिचार लगा कर लाये हुए आहार को भोग कर पापबन्ध करता है । कोई स्वयं अतिचार का सेवन भी करता है और उस सम्बन्धी पापबन्ध भी करता है । कोई न तो अतिचार का सेवन करता है और न उस सम्बन्धी पाप का बन्ध ही करता है । चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं यथाकोई एक पुरुष स्वयं व्रण करता है किन्तु उसके ऊपर पट्टी आदि बांधकर उसकी रक्षा नहीं करता है । कोई एक पुरुष दूसरे के द्वारा किये हुए व्रण पर पट्टी आदि बांध कर उसकी रक्षा करता है किन्तु स्वयं व्रण नहीं करता है । कोई एक पुरुष स्वयं व्रण करता है और उसकी रक्षा भी करता है । कोई एक पुरुष न तो स्वयं व्रण करता है और न उसकी रक्षा करता है । इसी प्रकार अतिचारों की अपेक्षा भी चौभङ्गी होती है । यथा कोई एक स्वयं अतिचार सेवन करता है और नियाणा करके उसकी रक्षा करता है । कोई एक पूर्वकृत नियाणा की रक्षा करता है किन्तु अब नवीन अतिचारों का सेवन नहीं करता है । कोई एक अतिचारों का सेवन भी करता है और नियाणा करके उनकी रक्षा भी करता है । कोई एक न तो अतिचारों का सेवन करता है और न नियाणा आदि करके उनकी रक्षा करता है । चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं यथा - कोई एक पुरुष स्वयं व्रण करता है किन्तु औषधि आदि • से उस व्रण को भरता नहीं है । कोई एक पुरुष दूसरों के द्वारा किये हुए व्रण को भरता है किन्तु स्वयं व्रण नहीं करता है । कोई एक पुरुष स्वयं व्रण करता है और उसको औषधि आदि द्वारा भरता भी है । - ४०५ 100 - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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