Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 आप्त के वचन से पैदा होने वाला ज्ञान और आनुगामिक यानी धूम आदि हेतु से अग्नि आदि साध्य का ज्ञान करना। अथवा व्यवसाय तीन प्रकार का कहा गया है। यथा - इहलौकिक, पारलौकिक और इहलौकिक पारलौकिक। इहलौकिक व्यवसाय तीन प्रकार का कहा गया है। यथा - लौकिक यानी सामान्य लोकाश्रित, वैदिक यानी वेद सम्बन्धी और सामयिक यानी सांख्य आदि के सिद्धान्त सम्बन्धी। लौकिक व्यवसाय तीन प्रकार का कहा गया है। यथा - अर्थ, धर्म और काम। वैदिक व्यवसाय तीन प्रकार का कहा गया हैं। यथा - ऋग्वेद यजुर्वेद और सामवेद। सामयिक व्यवसाय तीन प्रकार का कहा गया है। यथा - ज्ञान दर्शन और चारित्र। अर्थ योनि तीन प्रकार की कही गई है। यथा - प्रियवचन आदि बोलना सो साम, दूसरे का वध बन्धन आदि करना सो दंड और शत्रुवर्ग में फूट डालना सो भेद।
विवेचन - कृषि (खेती), वाणिज्य, तप, संयम, अनुष्ठान आदि कर्मप्रधान भूमि को कर्मभूमि कहते हैं। पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच महाविदेह ये १५ क्षेत्र कर्मभूमि है। कर्मभूमि में उत्पन्न मनुष्य कर्मभूमिज कहलाते हैं जो असि, मसि और कृषि इन तीन कर्मों द्वारा निर्वाह करते हैं। ...
दर्शन के तीन भेद कहे हैं - १. सम्यग्दर्शन २. मिथ्यादर्शन और ३. मिश्रदर्शन। .
१. सम्यग् दर्शन - मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से आत्मा में जो परिणाम होता है उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं। सम्यग्दर्शन हो जाने पर मति आदि अज्ञान भी सम्यग् ज्ञान रूप में परिणत हो जाते हैं।
२. मिथ्या दर्शन - मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से अदेव में देव बुद्धि और अधर्म में धर्म बुद्धि तथा गुरु के लक्षण एवं गुणों से रहित व्यक्ति को गुरु मानना रूप आत्मा के विपरीत श्रद्धान को मिथ्यादर्शन कहते हैं।
३. मिश्र दर्शन - मिश्र मोहनीय कर्म के उदय से आत्मा में कुछ अयथार्थ तत्त्व श्रद्धान होने को मिश्र दर्शन कहते हैं।
सम्यक्त्व पूर्वक मन का व्यापार 'प्रयोग' कहलाता है।
वस्तु स्वरूप के निश्चय को व्यवसाय कहते हैं। व्यवसाय के तीन भेद हैं - १. प्रत्यक्ष २. प्रात्ययिक ३. आनुगमिक (अनुमान)
१. प्रत्यक्ष व्यवसाय - अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान को प्रत्यक्ष व्यवसाय कहते हैं अथवा वस्तु के स्वरूप को स्वयं जानना प्रत्यक्ष व्यवसाय है।
२. प्रात्ययिक व्यवसाय - इन्द्रिय एवं मन रूप निमित्त से होने वाला वस्तु स्वरूप का निर्णय प्रात्ययिक व्यवसाय कहलाता है। अथवा आप्त (वीतराग) के वचन द्वारा होने वाला वस्तु स्वरूप का निर्णय प्रात्ययिक व्यवसाय है।
३. आनुगमिक व्यवसाय - साध्य का अनुसरण करने वाला एवं साध्य के बिना न होने वाला
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