Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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स्थान ४ उद्देशक ३
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१. जिन प्रवचन पर शंका, कांक्षा, विचिकित्सा न करता हुआ तथा चित्त को डांवाडोल और कलुषित न करता हुआ साधु निग्रंथ प्रवचन पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि रखता है और मन को संयम में स्थिर रखता है । वह धर्म से भ्रष्ट नहीं होता अपितु धर्म पर और भी अधिक दृढ़ होता है । यह पहली सुख शय्या है।
. २. जो साधु अपने लाभ से सन्तुष्ट रहता है और दूसरों के लाभ में से आशा, इच्छा, याचना और अभिलाषा नहीं करता । उस सन्तोषी साधु का मन संयम में स्थिर रहता है । और वह धर्म भ्रष्ट नहीं होता । यह दूसरी सुख शय्या है ।
३. जो साधु देवता और मनुष्य सम्बन्धी काम भोगों की आशा यावत् अभिलाषा नहीं करता । उसका मन संयम में स्थिर रहता है और वह धर्म से भ्रष्ट नहीं होता । यह तीसरी सुख शय्या है ।
४. कोई साधु होकर यह सोचता है कि जब हृष्ट, नीरोग, बलवान् शरीर वाले अरिहन्त भगवान् आशंसा दोष रहित अतएव उदार, कल्याणकारी, दीर्घ कालीन, महा प्रभावशाली, कर्मों को क्षय करने वाले तप को संयम पूर्वक आदर भाव से अंगीकार करते हैं । तो क्या मुझे केश लोच, ब्रह्मचर्य आदि में होने वाली आभ्युपगमिकी और ज्वर, अतिसार आदि रोगों से होने वाली औपक्रमिकी वेदना को शान्ति पूर्वक, दैन्यभाव न दर्शाते हुए, बिना किसी पर कोप किए सम्यक् प्रकार से समभाव पूर्वक न सहना चाहिए ? इस वेदना को सम्यक् प्रकार न सहन कर मैं एकान्त पाप कर्म के सिवाय और क्या उपार्जन करता हूँ? यदि मैं इसे सम्यक् प्रकार सहन कर लूँ, तो क्या मुझे एकान्त निर्जरा न होगी? इस प्रकार विचार कर ब्रह्मचर्य व्रत के दूषण रूप मर्दन आदि की आशा, इच्छा का त्याग करना चाहिए । एवं उनके अभाव से प्राप्त वेदना तथा अन्य प्रकार की वेदना को सम्यक् प्रकार सहना चाहिए । यह चौथी सुख शय्या है । ..
... अवाचनीय एवं वाचनीय चत्तारि अवायणिज्जा पण्णत्ता तंजहा - अविणीए, विगइप्पडिबद्धे, अविउसवियपाहुडे, माई । चत्तारि वायणिज्जा पण्णत्ता तंजहा - विणीए, अविगइप्पडिबद्ध, विउसवियपाहुडे, अमाई॥१७६॥ - कठिन शब्दार्थ - अवायणिज्जा - अवाचनीय-वाचना देने के अयोग्य, विगइप्पडिबद्धे - विकृति प्रतिबद्ध-विगयों में गृद्ध, अविउसवियपाहुडे - अव्यवशमित प्राभृत-क्रोध को शान्त न करने वाला, वायणिजा - वाचनीय-वाचना देने के योग्य, अविगइप्पडिबद्धे - अविकृति प्रतिबद्ध-विगयों में अनासक्त, विउसवियपाहुडे - व्यवशमित प्राभृत-क्रोध रहित । .
भावार्थ - चार पुरुष वाचना देने के अयोग्य कहे गये हैं यथा - अविनीत, दूध आदि विगयों में
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