Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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स्थान ३ उद्देशक १
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पसत्थारो। बंभलोग लंतएस णं कप्पेसु विमाणा तिवण्णा पण्णत्ता तंजहा - किण्हा णीला लोहिया। आशयपाणयारणच्चुएसु णं कप्पेसु देवाणं भवधारणिज्जसरीरा उक्कोसेणं तिण्णि रयणीओ उड्डे उच्चत्तेणं पण्णत्ता। तओ पण्णत्तीओ कालेणं अहिज्जंति तंजहा - चंदपण्णत्ती सूरपण्णत्ती दीवसागरपण्णत्ती॥७४॥
॥तिट्ठाणस्स पढमो उद्देसो समत्तो॥
कठिन शब्दार्थ - णिस्सीला - निःशील-अच्छे स्वभाव से रहित, णिव्वया - निता-व्रत रहित, णिग्गुणा - निर्गुणा-गुणों से रहित, णिम्मेरा - निर्मर्याद-मर्यादा रहित, णिपच्चक्खाण पोसहोववासापच्चक्खाणों तथा पौषधोपवास से रहित, रायाणो - राजा, मंडलीया - माण्डलिक राजा, कोडुंबी - कुटुम्बी, सुसीला - सुशील, सुव्वया - सुव्रत-श्रेष्ठ व्रतों का पालन करने वाले, सग्गुणा - उत्तम गुणों से युक्त, समेरा - मर्यादा युक्त, परिचत्तकामभोगा - कामभोगों को छोड़ने वाले, पसत्थारो - प्रशास्ता, भवधारणिज्जा - भवधारणीय शरीर, दीवसागरपण्णत्ती - द्वीप सागर प्रज्ञप्ति, अहिजंतिपढी जाती हैं।
भावार्थ - इस लोक में अच्छे स्वभाव से रहित यानी दुष्ट स्वभाव वाले प्राणातिपात आदि से अनिवृत्त अर्थात् व्रत रहित, क्षमा आदि उत्तरगुणों से रहित, मर्यादा रहित यानी स्वीकृत व्रत का पालन न करने वाले, नवकारसी, पौरिसी आदि पच्चक्खाणों से तथा पौषधोपवास से रहित तीन पुरुष काल के अवसर में काल करके नीचे सातवीं नरक के अप्रतिष्ठान नामक नरकावास में नैरयिक रूप से उत्पन्न होते हैं यथा - राजा यानी चक्रवर्ती और वासुदेव, माण्डलिक राजा और जो पञ्चेन्द्रियादि जीवों को मारने रूप महा-आरम्भ करने वाले कुटुम्बी यानी विस्तृत परिवार वाले पुरुष हैं। वे इस लोक में सुशील यानी श्रेष्ठ स्वभाव वाले, श्रेष्ठ व्रतों का पालन करने वाले, क्षमा आदि उत्तरगुणों से युक्त, मर्यादा युक्त अर्थात् स्वीकार किये हुए व्रतों का पालन करने वाले, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास करने वाले तीन पुरुष काल के समय काल करके सर्वार्थसिद्ध महाविमान में देव रूप से उत्पन्न होते हैं यथा - कामभोगों को छोड़ने वाले चक्रवर्ती आदि सेनापति और प्रशास्ता यानी धर्म शास्त्रों की शिक्षा देने वाले और धर्मशास्त्रों को पढ़ने वाले आचार्य आदि। ब्रह्मलोक और लान्तक इन दो देवलोकों में काला नीला और लाल इन तीन रंग वाले विमान कहे गये हैं। आणत, प्राणत, आरण और अच्युत इन देवलोकों में देवों की भवधारणीय शरीर की उत्कृष्ट ऊंचाई तीन रत्नि यानी तीन हाथ की कही गई है। चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति और द्वीपसागर प्रज्ञप्ति ये तीन प्रज्ञप्तियाँ काल से अर्थात् विशिष्ट योग्यतानुसार समय पर पढ़ाई जाती है। - विवेचन - जो जीव निःशील-दुष्ट स्वभाव वाले, निव्रत-व्रत रहित, निर्गुण-क्षमा आदि गुणों से
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