Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री स्थानांग सूत्र
के पास आये, आकर उन्होंने वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार कहा कि हे देवानुप्रिय ! हम लोग आपके प्रश्न का यथार्थ उत्तर नहीं जानते हैं और नहीं देखते हैं। इसलिए हे देवानुप्रिय ! यदि इस प्रश्न का उत्तर फरमाने में आपको कष्ट न होता हो तो हम लोग इस प्रश्न का उत्तर आपके पास से जानना चाहते हैं। ____ तब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने गौतम स्वामी आदि श्रमण निर्ग्रन्थों को सम्बोधित करके इस प्रकार फरमाया कि हे आर्यो ! हे आयुष्मन् श्रमणो ! प्राणियों को मरण आदि रूप दुःख से भय लगता है। फिर गौतम स्वामी ने पूछा कि है भगवन् ! दुःख को किसने पैदा किया है ? भगवान् ने फरमाया कि अज्ञान आदि प्रमाद के वशीभूत होकर इस जीव ने ही दुःख को पैदा किया है। तब गौतम स्वामी ने पूछा कि हे भगवन् ! दुःख कैसे दूर किया जाता है ? भगवान् ने फरमाया कि अप्रमाद से यानी प्रमाद का त्याग करके कर्मों का क्षय करने से दुःख दूर होता है।
विवेचन - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःख का मूल कारण प्रमाद कहा है। आचार्यों ने प्रमाद के आठ भेद इस प्रकार बताये हैं -
पमाओ य मुणिंदेहिं भणिओ अट्ठ भेयओ, अण्णाणं संसओ चेव, मिच्छाणाणं तहेव य। .. रागो दोसो मइब्भंसो धम्ममि य अणायरो,' जोगाणं दुप्पणीहाणं, अट्टहा वज्जियव्वओ।
अर्थात् मुनिवृन्दों ने प्रमाद के आठ रूप माने हैं - १. अज्ञान २. संशय ३. मिथ्याज्ञान ४. राग ५. द्वेष ६. मति भ्रंश (बुद्धि का विनाश, विपरीत मति) ७. धर्म में अनादर (अरुचि) और ८. योगों का दुष्प्रणिधान-मन, वचन और काय रूप योग की दुष्प्रवृत्ति। इन आठ प्रकार के प्रमादों का त्याग करने से दुःख का नाश होता है अर्थात् अप्रमाद सेवन से सुख की प्राप्ति होती है।
अण्णउत्थिया णं भंते ! एवं आइक्खंति एवं भासंति एवं पण्णवेति एवं परूवंति कहण्णं समणाणं णिग्गंथाणं किरिया कज्जइ ? तत्थ जा सा कडा कज्जइ णो तं पुच्छंति, तत्थ जा सा कडा णो कज्जइ णो तं पुच्छंति, तत्थ जा सा अकडा णो कज्जइ णो तं पुच्छंति, तत्थ जा सा अकडा कज्जइ तं पुच्छंति, से एवं वत्तव्वं सिया ? अकिच्चं दुक्खं अफुसं दुक्खं अकज्जमाणकडं दुक्खं अकट्ट अकट्ट पाणा भूया जीवा सत्ता वेयणं वेदेति त्ति वत्तव्वं। जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु। अहं पुण एवं आइक्खामि एवं भासामि एवं पण्णवेमि एवं परूवेमि - किच्चं दुक्खं
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