Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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स्थान ३ उद्देशक ४
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पुरिसजुगाओ- पुरुष युग-गुरु शिष्य की पाट परम्परा के क्रम से, जुगंतकरभूमी - युगांतकरभूमि - मोक्षगामी पुरुष, अजिणाणं - जिन नहीं, जिणसंकासाणं - जिन सरीखे सव्वक्खर सण्णिवाईणं सर्वाक्षर सन्निपात वाले, अवितहं अवितथ - यथातथ्य, बागरमाणाणं- वचनों का प्रयोग करने वाले, चउद्दस पुव्वीणं - चौदह पूर्वधारी साधुओं की ।
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भावार्थ - क्षीण मोहनीय वाले अरिहंत भगवान् के तीन कर्मों की प्रकृतियाँ एक साथ क्षय होती हैं यथा - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय । अभिजित नक्षत्र तीन तारों वाला कहा गया है। इसी प्रकार श्रवण, अश्विनी, भरणी, मृगशिर, पुष्य और ज्येष्ठा ये सभी नक्षत्र तीन तीन तारों वाले कहे गये हैं । पन्द्रहवें तीर्थंकर श्री धर्मनाथ स्वामी मोक्ष गये बाद पल्योपम का तीन चौथाई यानी पौन पल्योपम कम तीन सागरोपम बीत जाने पर सोलहवें तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ स्वामी पैदा हुए थे । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मोक्ष गये बाद गुरु शिष्य की पाटपरम्परा के क्रम से तीन पाट तक मोक्षगामी पुरुष हुए थे अर्थात् जम्बूस्वामी तक मोक्ष जाने वाले पुरुष हुए थे। जम्बूस्वामी के मोक्ष जाने बाद फिर यहाँ भरत क्षेत्र से मोक्षगमन बन्द हो गया । उन्नीसवें तीर्थङ्कर श्री मल्लिनाथ भगवान् ने तीन सौ स्त्रियों के साथ मुण्डित होकर प्रव्रज्या - दीक्षा अङ्गीकार की थी। इसी प्रकार तेइसवें तीर्थङ्कर श्री पार्श्वनाथ भगवान् ने भी तीन सौ पुरुषों के साथ दीक्षा ली थी । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पास जिन नहीं किन्तु जिनसरीखे अर्थात् असर्वज्ञ होते हुए भी सम्पूर्ण संशयों का छेदन करने वाले होने से तीर्थङ्कर के समान सर्वअक्षर सन्निपात वाले अर्थात् वचन सम्बन्धी सम्पूर्ण रहस्यों को जानने वाले तीर्थङ्कर की तरह यथातथ्य वचनों का प्रयोग करने वाले चौदहपूर्वधारी साधुओं की चतुर्दशपूर्वधर संपदा तीन सौ थी अर्थात् भगवान् महावीर स्वामी के पास चौदहपूर्वधारी साधु तीन सौ थे। श्री शान्तिनाथ भगवान्, श्री कुन्थुनाथ भगवान् और श्री अरनाथ भगवान् ये तीन तीर्थङ्कर चक्रवर्ती भी थे अर्थात् चक्रवर्ती की पदवी भोग कर फिर तीर्थङ्कर हुए थे। शेष मांडलिक राजा होकर तीर्थकर हुए थे।
विवेचन - क्षीण मोह गुणस्थान के अंतिम समय में जीव पांच प्रकार का ज्ञानावरणीय, चार प्रकार का दर्शनावरणीय और पांच प्रकार का अंतराय कर्म, इन तीन कर्मों की इन चौदह प्रकृतियों का एक साथ क्षय कर केवली होता है
'धम्मजिणाओ संती, तिहि उ तिचउभागपलिय ऊणेहिं अयरेहिं समुप्पण्णो" - पन्द्रहवें तीर्थंकर श्री धर्मनाथ स्वामी के मोक्ष जाने के पौन पल्योपम कम तीन सागरोपम व्यतीत होने पर सोलहवें तीर्थंकर श्री शांतिनाथ स्वामी उत्पन्न हुए।
पुरिसजुगाओ - पुरुष युग-युग अर्थात् पांच वर्ष प्रमाण काल विशेष अथवा लोक में प्रसिद्ध जो कृत युग आदि है वे युग क्रम से व्यवस्थित है। पुरुष गुरु शिष्य के क्रम वाला अथवा पिता पुत्र क्रम वाला। युग की तरह जो पुरुष हैं वे पुरुष युग हैं। तीसरे पुरुष युग अर्थात् जम्बू स्वामी पर्यंत मोक्ष
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