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उत्तम मार्ग है. इसी मार्ग की रुची को सम्यक्त्व कहते हैं. वह ग्रन्थीभेद करने से प्राप्त होता है अन्थीभेद करने के लिये तीन करन करते हैं. (१) यथा प्रवृत्तिकरण (२) अपूर्वकरण (३) अनिवृत्तिकरण ये करण सर्व संज्ञी पंचेन्द्रि करते हैं. इसमें पहिला यथा प्रवृत्तिकरण भव्य अभव्य दोनों करते हैं.
यह करण जीव अनन्तिवार करता है इस का स्वरुप लिखते हैं. ___ सर्व कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति बांधनेवाले जीव अत्यंत संक्लेश परिणामि होने से यथाप्रवृत्तिकरण नहीं करते. उक्तंच-विशेषावश्यके “उक्कोसछिन लप्भई भयणा एएसु पुव्वलद्धाए । सव्वजहनछिइसुवि, न लप्भजेण पुव्वपडिवनो ॥१॥ कर्म की उत्कृष्ट स्थिति का बांधनेवाला जीव सम्यक्त्व को नहीं पा सक्ला और जो जीव सात कर्म की जघन्य स्थिति बांधता है वह . गुणवान है. इस वास्ते जब एक कोडाकोडी सागरोपम पल्योपम के असंख्यातमें भाग न्यून स्थिति को बांधता हो उस समय यथाप्रवृत्तिकरण करता है. जीवने जो कर्म क्षपणादि शक्ति नहीं प्राप्त की थी वह प्राप्त की उस को यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं. उक्तंच भाष्ये-" येन अनादि संसिद्ध प्रकारेण प्रवृत्तं कर्म क्षपणं क्रियते अनेनिति करण जीव परिणाम एव उच्यते अनादि कालात् कर्मक्षपण प्रवृत्ताध्यवसाय विशेषो यथाप्रवृत्तिकरणमित्यर्थः " जो चयोपशमी चेतना वीर्य संसार की असारता जाने संसार दुःखरूप जाने इस कारण शरीर पर से परिग्रह की ममता हटे. उद्वेग, उदासीनता परिणाम से सात कर्मों की स्थिति अनेक कोडाकोडी के दल असंख्याते जो सत्ता में थे वे सपा के किंचित् न्यून एक कोडाकोडी रक्खे ऐसा यथाप्रवृत्तिकरण आत्मा अनन्ति वार प्राप्त करता है, परन्तु प्रन्थि भेद नहीं कर सका इस वास्ते जैसे गिरि नदी के बीचमें आया हुआ पाषाण बहाव में बहता हुवा घिसते घिसते सहज स्वभाव से कोई आकार को प्राप्त हो जाता है इसी तरह जन्म मरणादि दुःख के उद्वेग से अना भोगपने भववैराग से जीव यथाप्रवृत्तिकरण करता है. वही जीव किसी तरह वैराग्य से विचार करे कि भवभ्रमण यह दुख है,