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अभेदी के दो भेद एक भव्य दूसरा अभव्य, अभव्य जीवोंका दल ऐसा है कि वे श्रुताभ्यास करते हैं. द्रव्य से पांच महाव्रतों को भी अंगीकार करते हैं. परन्तु आत्मधर्म की यथार्थ श्रद्धा विना प्रथम गुणस्थानकमें ही रहते हैं. वे अभव्य जीव सिद्ध पदको प्राप्त नहीं कर सक्ते. उनकी संख्या चौथे अनन्त तुल्य है.
दूसरे भव्य हैं वे सिद्धपने के योग्य हैं. उन को कारण योग्य मिलने से पलटन धर्म को प्राप्त होते हैं. ऐसे भव्य जीव अभव्य से अनंतगुणे हैं. उनमें से कइ भव्य जीव सामग्री पा के ग्रंथिभेद कर सम्यक्त्व को प्राप्त करते है. और कितनेक भव्य ऐसे हैं जो सामग्री के अभावसे कभी सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं कर सक्ते. उक्तंच-विशेषावश्यके, “ सामग्गी अभावाश्रो व्यवहाररासि अप्पवेसाओ। भव्वावि ते अणंता, जे सिद्धसुहं न पावंति ॥ १ ॥ उन भव्य जीवों में योग्यता धर्म का सद्भाव है. इस लिये भव्य कहलाते हैं.
. मिथ्यात्व को छोड के शुद्ध पर्याय रुपसे व्यापक हैं वही जीव का स्वधर्म है और जिससे प्रात्मसत्तागत धर्म प्रगट हो उसको साधन धर्म कहते हैं. जिस के दो भेद (१) वायण-पुच्छणादि-वंदन, नमनादि पडिलेहन-प्रमार्जनादि सब योग प्रवृत्ति है वह द्रव्य से साधन धर्म है. भावधर्म प्रगट करने के लिये यह कारणरुप है. द्रव्य साधन उसी को कहते हैं. जो भाव का कारण हो-“ कारण कारया से दव्व " इति आगम वचनात् “ और चमोपशमादि भावसे प्रगट हुवे जो ज्ञानवीर्यादि गुण उसको पुद्गलानुयायीपने से हटा के शुद्ध गुणी जो अरिहंत सिद्धादिक उन के शुद्ध गुणपने अनुयायी करना अथवा
आत्मस्वरूप अनन्तगुणपर्यायरुप उस के अनुयायी करना यह भावसे साधन धर्म है यही आत्मसिद्धि उत्पन्न करने का उपाय है..
, जब तक आत्मा का शुद्ध स्वरुप चिदानंदघन साध्य नहीं है और पुदल सुखकी आशा से विषगरल अन्योअन्य अनुष्ठान करना यह संसार का हेतु है. इस लिये साध्य सापेक्षपने स्याद्वादं श्रद्धा सहित साधन करना यह