Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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जैन कथामाला भाग ३१
- गीतज्ञ | पद्म चक्रवर्ती के बड़े भाई मुनि विष्णुकुमार के त्रिविक्रम सवधी गीत को इस वीणा मे बजाओ ।
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'जैसी तुम्हारी इच्छा' कहकर कुमार ने वीणा के तार झकृत किये । प्रथम झकार ही मानो मधुप झकार थी। सभा सुधारस से आप्लावित हो गई । वसुदेव की अगुलियाँ वीणा के तारो से खेलने लगी । आरोह, अवरोह, तीव्र, मध्यम, मद, तार सप्तक, सुतार सप्तक, लय, आदि मानो संगीत देवता स्वय साकार हो गये । महामुनि विष्णुकुमार की एक-एक क्रिया संगीत लहरी के द्वारा कानो मे होकर सुनने वालो के मस्तिष्क मे नाचने लगी। ऐसा लगा कि विष्णुकुमार मुनि साक्षात् सामने उपस्थित हो । मुनियों के उपसर्ग मे करुण रस का उद्र ेक हुआ तो महामुनि के रूप मे वीर रस का और अन्त मे भक्ति रस और गात रस की गंगा मे गोता लगाकर सभी पवित्र हो गये । वादक आत्म विभोर था और श्रोता आत्म-विस्मृत | किसी को यह भान नही रहा कि वीणा वज रही है । वे तो यही समन रहे थे कि उनके मस्तिष्क के तत् स्पन्दन कर रहे है । इन्ही के कारण यह स्वर निकल रहा है और मस्तिष्क पटल पर माक्षात् दृव्य दिखाई दे रहा है । सगीत विद्या की पराकाष्ठा ही कर दी कुमार वसुदेव ने ।
वीणावादन रुक जाने के बाद भी कुछ समय तक मधुर ध्वनि गूँजती रही । एकाएक ध्वनि वन्द हुई तो लोगो की वन्द आँखे खुल गई । वसुदेव कुमार और श्रेष्ठि- पुत्री आत्म विस्मृत से पलके बन्द किये बैठे थे ।
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'धन्य' 'धन्य' की आवाजो से उनकी आँखे खुली । एक स्वर से सवने स्वीकार किया - देवोपम । मगीत की पराकाष्ठा हो गई । निश्चित ही इस युवक की जीत हुई ।
गधर्वसेना दृष्टि नीची करके कुमार के चरणो को देखने लगी । उसके मुख पर लज्जा थी— हार की नही, गुणज्ञ पति के प्रति प्रेम की ।