Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar

View full book text
Previous | Next

Page 360
________________ ३३२ जैन कयामाला - भाग ३३ वासी नगर से बाहर निकलने का प्रयत्न करते तो द्वीपायन देव उन्हे उठाकर अग्नि मे होम कर देता । सारा नगर त्राहि-त्राहि करने लगा। इस भयकर अग्निकाड और विनागलीला मे भी कृष्ण अपने मातापिता का ध्यान न भूले । उन्होने वसुदेव, देवकी और रोहणी को रथ मे विठाया तथा कृष्ण-वलभद्र दोनो भाई चल पडे । अश्व कुछ ही कदम चल सके कि द्वीपायन देव ने उन्हे स्तभित कर दिया। अश्वो को वही पर छोडा और दोनो भाई रथ को खीचकर जैसे-तैसे नगर-द्वार के समीप तक लाए। तभी रथ टूट गया। भीपण ताप से कराहते हुए माता-पिता ने पुकार की-अरे बेटा कृष्ण-बलराम । हमे वचाओ। माता-पिता का आर्तनाद हो ही रहा था कि नगर-हार वन्द हो गया। वलभद्र ने आगे बढ़कर पाद-प्रहार से द्वार को तोड डाला और मातापिता को लेने लपके । तभी द्वीपायन देव ने प्रगट होकर कहा___हे कृष्ण । हे वलराम | तुम्हारा परिश्रम व्यर्थ है। मैं वही द्वीपायन तपस्वी हूँ। सिर्फ तुम दोनो ही जीवित निकल सकते हो। बाकी सभी को इस अग्नि मे भस्म होना ही पड़ेगा। इसके लिए ही तो मैंने अपना सम्पूर्ण तप वेचा है और ग्यारह वर्प तक प्रतीक्षा की है। देव की बात पर दोनो भाइयो ने तो ध्यान दिया नही किन्तु वसुदेव, रोहिणी और देवकी ने समवेत स्वर मे कहा -पुत्रो । अव तुम चले जाओ। तुम दोनो जीवित हो तो समस्त यादवकुल ही जीवित है । तुमने हमे बचाने का बहुत प्रयास किया, किन्तु हमारी मृत्यु इसी प्रकार है । अव हम सथारा लेते है । ___ यह कह कर तीनो ने भगवान अरिष्टनेमि की शरण ग्रहण की, चारो प्रकार का आहार त्याग कर सथारा लिया और महामन्त्र नवकार का जाप करने लगे। आकाश से अगारे वरस ही रहे थे। तीनो अपनी आयु पूर्ण करके स्वर्ग गए। __ माता-पिता जल रहे थे, और त्रिखण्डेश्वर, महावली, नीति-निपुण श्रीकृष्ण खडे-खडे देख रहे थे-विवश निरुपाय । बारह योजन लम्बी

Loading...

Page Navigation
1 ... 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373