Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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जैन कथामाला - भागे ३३ के समान समझते हैं, उसी प्रकार तुम्हारे बल से आज मैंने भी ससार को तिनका समझ लिया।
छोटे भाई के वल को देखकर प्रसन्नता तो स्वाभाविक ही थी किन्तु हृदय के.एक कोने मे से आगका के सर्प ने फन उठाया-कही यह मेरा राज्य हडप ले तो ११ कृष्ण' चिन्तातुर हो गए । उन्हे विचारमग्न देखकर अरिष्टनेमि चल दिए।
अभी कृष्ण का विचार-प्रवाह चल ही रहा था-उनके मुख पर चिन्ता की रेखाएँ स्पष्ट थी कि वलराम आ गए। उन्होंने पूछा
-क्या बात हैं कृष्ण ? चिन्तित क्यो हो ? कृष्ण ने कहा
-~-हमारा अनुज अरिष्टनेमि महावली है। मैं उसकी भुजा से बन्दर की तरह झूल गया फिर भी झुका न पाया, जवकि उसने मेरी भुजा कमलनाल की भाँति मोड दी।
—यह तो प्रसन्नता की वात है कि हमारा भाई ऐसा वली है। --प्रसन्नता के साथ-साथ चिन्ता भी है, यदि उसने सिंहासन छीन लिया तो ?... •
१ इस घटना का वर्णन जिनसेनाचार्य ने अपने हरिवश पुराण मे दूसरे ढग से किया है । सक्षिप्त घटना क्रम इस प्रकार है
एक बार अरिप्टनेमि श्रीकृष्ण की राज्यसभा मे गए । कृष्ण ने उन्हे सँसम्मान विठाया। उस समय वीरता का प्रसग चल रहा था। कोई अर्जुन की प्रशसा कर रहा था, कोई भीम की और कोई श्रीकृष्ण की। तव वलराम ने कहा--जहाँ अतुलित वलशाली अरिष्टनेमि बैठे हो वहाँ किस वीर की प्रशसा करनी । इस पर कृष्ण ने परीक्षा के लिए कहा । तब अरिष्टनेमि ने कहा-मल्लयुद्ध से क्या लाभ ? आप मेरा पांव ही हिला दें। श्रीकृष्ण अपनी भरपूर शक्ति लगाने पर भी उनका चरण न हिला सके । तव उन्हें महान वली समझकर उनके हृदय में सिंहासन के प्रति चिन्ता व्याप्त हो गई।
(हरिवंश पुराण, ५५/१-१३)