Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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- वासुदेव | यह समुद्र तो दुर्लध्य है। इसमे पर्वत जैसे विशाल जन्तु है । कैसे पार कर सकेगे, इसे ?
-मेरे होते हुए तुम्हे क्या चिन्ता ? बस देखते जाओ। -वासुदेव ने मुस्करा कर कहा और तट पर बैठकर लवण समुद्र के अधिष्ठायक सुस्थित देव की आराधना की।
उनकी आराधना से प्रसन्न होकर सुस्थित देव प्रगट हुआ और पूछने लगा
-तुम्हारा क्या काम करूं?
~अमरकका नगरी के राजा पद्मनाभ ने द्रौपदी का हरण कर लिया है । उसी को वापिस लाने के लिये तुम्हारी आराधना की है। -श्रीकृष्ण ने अपना अभिप्राय बताया।
देव बोला
-हे कृष्ण | तुम कहो तो जिस प्रकार पद्मनाभ ने पातालवासी सागतिक देव के द्वारा द्रौपदी का अपहरण कराया है वैसे ही मैं भी उसे उठा लाऊँ। __-नही देव । इस प्रकार का कर्म चौर-कर्म कहलाता है । यह न तुम्हारे लिये गोभनीय है, न मेरे लिये।
-तो, पद्मनाभ को उसके पुर, बल, वाहन आदि सहित समुद्र मे डुबो हूँ।
नही, इस उपाय मे व्यर्थ की हिंसा होगी। -तो फिर क्या करूं ?
-तुम सिर्फ इतनी ही सहायता कर दो कि पाडवो सहित हमारे छहो रथ निर्विघ्न अमरकका नगरी तक पहुँच जाय ।
सुस्थित देव ने श्रीकृष्ण की इच्छा स्वीकार की और पाँचो पांडवो तथा वासुदेव कृष्ण के रथ अमरकका नगरी जा पहुँचे।
नगर के बाहरी उद्यान मे रुककर श्रीकृष्ण ने अपने सारथि दारुक को समझाकर राजा पद्मनाभ की सभा मे भेजा। ___ बलवान स्वामी का दूत भी निर्द्वन्द्व और निर्भय होता है। दारुक