Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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श्रीकृष्ण-कथा-बलभद्र का जन्म
११६ -आप उसकी चिन्ता मत कीजिए । मैं ऐसा प्रबन्ध करूंगा कि माता को कुछ पता ही नहीं लगेगा। पिता ने आज्ञा दी
-ऐसा यत्न हो सके तो इससे ज्यादा प्रसन्नता की बात और क्या होगी? __ललित को आज्ञा मिल गई। उसने एक परदे के पीछे छोटे भाई गगदत्त को विठाया। दोनो पिता-पुत्र परदे के इस तरफ और गगदत्त उस ओर । माता प्रेम से भोजन परोस रही थी। पिता-पुत्र उसकी नजर वचाकर अपने भोजन का कुछ अश पीछे को खिसका देते । गगदत्त उसे लेता और मुख मे रख कर प्रसन्न होता। आज जीवन मे पहली वार उसे माँ के हाथ से वना अमृतोपम भोजन मिल रहा था। कल्पना के स्वर्ग में विचर रहा था गगदत्त ।
क र प्रकृति से गगदत्त का यह क्षणिक सुख भी न देखा गया। वायु का एक प्रवल झोका आया और गगदत्त के सुख को ले उडा। परदा उडा और रहस्य खुल गया। प्रसन्नता से झूमती हुई माँ की मुख-मृद्रा रौद्र हो गई। झपाटे से उठी और बाल पकड कर खीच लिया गगदत्त को।
उसने न कुछ पूछा और न सुना; लगी मारने । गगदत्त के मुख का ग्रास मुख मे रह गया और हाथ का छूट कर जमीन पर गिर गया। माँ के प्यार का प्यासा गगदत्त गोवत्स की तरह डकराने लगा। पिता और भाई ने बचाने का प्रयास किया तो सेठानी ने उनको भी तिरस्कृत कर दिया। उसकी आँखो से ज्वाला निकल रही थी और मुख से विप । उसके चलते हुए हाथ और पैर नागिन की पूँछ के समान लग रहे थे। ____ अच्छी तरह मार-कूट कर माँ ने पुत्र को एक कोठरी मे वन्द कर दिया।
दया आई पिता को । उसने अपने बडे पुत्र ललित की सहायता से उसे बाहर निकाला और सेठानी से छिपा कर किसी दूसरे स्थान पर