Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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श्रीकृष्ण-कथा-द्वारका-निर्माण
१७५
कालकुमार को अपने वल पर अभिमान हुआ। साथ ही उसे अपनी प्रतिज्ञा भी स्मरण हो आई । वोला___~ मैंने पिताजी और बहन जीवयगा के समक्ष प्रतिना की थी कि मैं यादवो को अग्नि मे से भी खोचकर मार डालूंगा। इसलिए मैं भी अग्नि मे प्रवेश करता हूँ। ___ यह कहकर वह अग्नि मे प्रवेश कर गया और सबके देखते-देखते जीवित ही जल गया। उसी समय सूर्यास्त हो गया। अत जरासध के सैनिको ने वही रात्रि-विश्राम किया।
प्रात काल सैनिक उठे तो न वहाँ दुर्ग या और न अग्नि-चिताएँ । सहदेव, यवन तथा अन्य सभी राजा आश्चर्यचकित रह गए। तभी हेरिको ने आकर बताया--'यादव आगे निकल गए है।'
सभी के मुख म्लान हो गए। वृद्धजनो को निश्चय हो गया कि यह देवमाया थी । सेनापति की मृत्यु और देवमाया से भयभीत सेना वापिस लौट गई।
सैनिको ने जरासघ को सम्पूर्ण वृतान्त सुनाकर यह भी बताया कि हमारे देखते ही देखते वह विशाल दुर्ग ओर चिताएँ अदृश्य हो गई तो वह 'हा पुत्र ! हा पुत्र ।' कहकर छाती पीटने लगा।
___ यादव दल ने आगे बढ़ते हुए कालकुमार की मृत्यु की खबर सुनी तो वहुत प्रसन्न हुए और निमित्तज्ञ क्रौप्टुकि का विशेप आदर करने लगे। ___मार्ग मे एक वन मे यादव दल पडाव डाले ठहरा हुआ था। उसी समय अतिमुक्त चारण मुनि उधर आ निकले । दगाहपति समुद्रविजय ने उनकी वन्दना करके पूछा
-भगवन् । इस विपत्ति से हमारी रक्षा कैसे हो ? मुनिराज ने वताया
--राजन् । तुम्हें तनिक भी भयभीत नहीं होना चाहिए । तुम्हारा पुत्र अरिष्टनेमि महा भाग्यवान, अतुलित बलशाली और वाईसवाँ