Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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खाने वाली डुक्करी (शूकरी) हुई। पुन' उसने कूकरी (कुतिया) का जन्म लिया। इस जन्म मे दावानल में दग्ध होते हुए उसने किसी शुभ परिणाम से मनुष्य आयु का वध किया। प्राण त्याग कर वह नर्मदा नदी के किनारे भ गुकच्छ (भडौच) नगर मे काणा नाम की एक मच्छीमार की पुत्री हुई।
काणा की काया अति दुर्गन्धमयी थी । उसकी दुर्गन्ध ऐसी असह्य थी कि माता-पिता न सह सके और नर्मदा के किनारे छोड आए । किसी प्रकार वह युवती हुई और लोगो को नाव मे विठाकर नदी पार उतार कर अपनी जीविका उपार्जन करने लगी।
दैवयोग से मुनि समाधिगुप्त वहाँ आ गए। दिन का चौथा प्रहर प्रारम्भ हो गया अत नदी किनारे ही मुनिराज कायोत्सर्ग मे लीन हो गए।
भयङ्कर गीत पड रहा था। दिन मे सूर्य के आतप मे ही शरीर की ठठरी बँध जाती जिसमे तो अब रात का धुंधलका छाने लगा। काणा ने सोचा ये साधु ऐसे गीत मे कैसे रह सकेगे । उसने दयार्द्र चित्त होकर मुनि को तृणो से ढक दिया।
रात्रि व्यतीत हुई। प्रात काल होने पर मुनिश्री का ध्यान पूरा हुआ । काणा ने मुनि को भक्तिपूर्वक प्रणाम किया है। धर्मलाभ का शुभाशीप देकर मुनि ने सोचा कि 'यह कन्या भद्र परिणाम वाली है' अत उन्होने उसे धर्मदेशना दी।
धर्मदेशना सुनते हुए काणा मुनिश्री की ओर टकटकी लगाकर देखती रही। उसके हृदय मे वार-बार विचार उमडता -'कही देखा है ? कहाँ ? कुछ याद नही ?' काणा अपनी जिज्ञासा रोक न सकी, पूछ बैठी___-महाराजश्री | मैंने आपको कही देखा है। पर कहाँ ? कुछ स्मरण नही आ रहा । आप ही बताइये ।
मुनिश्री ने उत्तर दिया-मत पूछो काणा तुम्हे दुख होगा ।