Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
View full book text
________________
-उचित-अनुचित मैं नही जानती। मेरा तुम पर अधिकार है और मैं तुम्हारे साथ भोग करूंगी। तुम इसको अस्वीकार नही कर सकते । -कनकमाला ने हठपूर्वक कहा ।
-तो मैं तुम्हारी शिकायत पिता कालसवर से कर दूंगा। व्यगपूर्वक हँस पडी कनकमाला । वोली
- प्रद्युम्न तुम मेरी शक्ति को नही जानते । कालसवर मेरा कुछ नही विगाड सकता।
- क्यो ?-चकित होकर प्रद्युम्न ने पूछा।
सुनो-कनकमाला कहने लगी-मैं उत्तर श्रेणो के नलपुर नगर के राजा निषध की पुत्री हूँ। मेरा भाई नैपधि है। पिता ने मुझे गौरी नामक विद्या दी है और कालसवर ने प्रज्ञप्ति नाम की विद्या । इन दोनो विद्याओ के कारण मैं अजेय हूँ।
प्रद्युम्न हतप्रभ होकर उसकी ओर ताकने लगा। कनकमाला ही पुन बोली
-इसी कारण कहती हूँ कि मेरी इच्छा पूरी करते रहोगे तो सुखी रहोगे अन्यथा ___कनकमाला ने वात अधूरी छोड दी किन्तु उसके स्वर मे स्पष्ट धमकी थी। प्रद्युम्न पशोपेश मे पड गया। यदि कनकमाला की बात स्वीकार करता है तो घोर पाप होता है और नही मानता तो असहनीय कप्ट और लोकापवाद । कामान्ध स्त्रियो का क्या भरोसा ? न जाने कैसा कपट-जाल रचदे। सोच-विचार कर उरग्ने नीति से काम लिया। नम्र स्वर में बोला
-आपकी इच्छा स्वीकार करने पर कालसवर और उसके पुत्र रुष्ट होकर मुझे मार डालेगे । __-नही, मेरी विद्याएँ तुम्हारी रक्षा करेगी।
-आप आठो पहर तो मेरे साथ रहेगी नही । न जाने किस समय घात करदे।