Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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सोलह मास का फल सोलह वर्ष
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अमृत सलिला गङ्गा के तट पर कोई प्यासा नहीं रहता तो अनन्त ज्ञानी सीमधर स्वामी के चरण-कमलो मे बैठे नारद ही क्यो अपनी जिज्ञासा शात न करते ? अजलि वॉधकर खड़े हो गए और पूछने लगे
–नाथ | रुक्मिणी को पुत्र-वियोग किस कर्म के कारण भोगना पड़ेगा?
प्रभु रुक्मिणी के पूर्व-भव बताने लगे
इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र मे मगध देश के अन्तर्गत लक्ष्मीग्राम नाम का एक ग्राम है। उसमे सोमदेव नाम का एक ब्राह्मण रहता था । उसकी स्त्री का नाम था लक्ष्मीवती । लक्ष्मीवती एक वार उपवन मे गई। वहाँ एक मोर का अण्डा पडा हुआ था । लक्ष्मीवती ने उत्सुकतावश वह अण्डा उठा लिया और कुछ समय तक ध्यानपूर्वक देखकर उसे पुन उसी स्थान पर रख दिया।
लक्ष्मीवती तो वहाँ से चली आई किन्तु उसके हाथो के कुकुम के कारण अण्डे के रग और गध परिवर्तित हो गये । मोरनी ने उसे देखा और सूंघा तो उसे वह अपना अण्डा ही न मालूम पडा। उसने वह सेया नही । सोलह घडी तक अण्डा इसी प्रकार पडा रहा। सयोग से बरसात हो जाने के कारण जव उसका रग धुल गया और गध वायु तया पानी के साथ बह गई तव उसका असली रग-रूप और गव उभर आया। मयूरी ने अपने अण्डे को पहिचाना और सेया।
अण्टे से उचित समय पर उत्तम मोर का वच्चा निकला। लक्ष्मीवती पुन उद्यान गई और मोर के छोटे से शिशु पर मोहित हो गई । मोरनी रोती ही रह गई और लक्ष्मीवती उस वच्चे को पकड
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