Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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इतना ही प्रेम है गाव से तो उसकी ही भाँति नगरी से बाहर क्यो नही निकल जाते ? भीरुक को हमेशा क्यो तग करते रहते हो ? - कहाँ जाऊँ ? – प्रद्य ुम्न ने हँस कर पूछ लिया - श्मशान मे जाओ, वही तुम्हारे लिए उचित स्थान है ? - फिर कभी आऊँ या नही १
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- क्या आवश्यकता है तुम्हारी ? कौन सा काम रुक जायगा तुम्हारे बिना ?
- शायद कोई रुक ही जाए। सोच लो कभी आवश्यकता पड ही गई तो...?
- तो जव मैं शाव को हाथ पकड़ कर लाऊँ तव तुम भी आ जाना । — क्रोधित होकर सत्यभामा ने कहा ।
'जैसी माता की आज्ञा' कहकर प्रद्युम्न चल दिया और श्मशान मे जा बैठा । शाव भी घूमता- घामता वहाँ आ पहुँचा। दोनो भाई श्मशान में रहने लगे । नगर-निवासी जब कोई शव लाते तो कर लिये विना अग्नि संस्कार न करने देते ।
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सत्यभामा ने प्रयत्न करके भीरुक के लिए ६६ कन्याएँ एकत्र कर ली । वह अपने पुत्र का विवाह १०० कन्याओ से करना चाहती थी । एक कन्या की खोज और करने लगी । प्रज्ञप्ति विद्या द्वारा माता का विचार जान कर प्रद्युम्न और शाव ने एक पडयत्र किया । प्रद्युम्न तो वन गया राजा जितशत्रु और शाव उसकी रूपवती पुत्री । वह कन्या एक बार भीरुक की धायमाता को दिखाई दे गई । धायमाता से सत्यभामा को पता चला और उसने उसकी याचना की । जितशत्रु ने दूत से कहा - 'यदि महारानी सत्यभामा मेरी पुत्री का हाथ पकडकर द्वारका ले जायें और लग्न मण्डप मे अपने पुत्र के हाथ के ऊपर मेरी पुत्री का हाथ रखे तो यह सम्वन्ध हो सकता है ।' सत्यभामा को तो एक कन्या की खोज थी ही । उसने तुरन्त जितशत्रु की शर्त स्वीकार कर ली । वह जितशत्रु के शिविर मे जा पहुची। उस समय शांव ने