Book Title: Ratnastok Mnjusha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 32
________________ 8. अवगाहना द्वार-भव्य-द्रव्य देव की अवगाहना जघन्य अँगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट 1 हजार योजन । नरदेव की अवगाहना जघन्य 7 धनुष, उत्कृष्ट 500 धनुष । धर्मदेव की अवगाहना जघन्य दो हाथ', उत्कृष्ट 500 धनुष। देवाधिदेव की अवगाहना जघन्य 7 हाथ, उत्कृष्ट 500 धनुष । भावदेव की अवगाहना जघन्य एक हाथ', उत्कृष्ट 7 हाथ। ___9. अन्तर द्वार-भव्य-द्रव्य देव का अन्तर-जघन्य 10 हजार वर्ष और अन्तर्मुहूर्त अधिक, उत्कृष्ट अनन्त काल। नरदेव का अन्तर-जघन्य 1 सागरोपम झाझेरा, उत्कृष्ट देशोन अर्द्ध पुद्गल परावर्तन । धर्मदेव का अन्तर-जघन्य पल्योपम पृथक्त्व, उत्कृष्ट देशोन अर्द्ध पुद्गल परावर्तन । देवाधिदेव का अन्तर नहीं। भावदेव का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट अनन्त काल। ____10. अल्पबहुत्व द्वार-सब से थोड़े नरदेव । उनसे देवाधिदेव संख्यात गुण। उनसे धर्मदेव संख्यात गुण। उनसे भव्य-द्रव्य देव असंख्यात गुण । उनसे भावदेव असंख्यात गुण हैं। 6. अवगाहना का विवेचन अन्य स्थान से ग्रहण किया है। 7. अवसर्पिणी काल में पाँचवाँ आरा उतरते तक दो हाथ की अवगाहना होती है। पाँचवें आरे के बाद में साधु का विरह पड़ जाता है। अत: दो हाथ बोलना उचित लगता है। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र के द्वितीय वक्षस्कार से भी पाँचवें आरे उतरते मनुष्य की अवगाहना दो हाथ की स्पष्ट होती है। जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग 1 पृष्ठ 685 (तृतीय संस्करण 1988) में भी ऐसा ही है। 8. भावदेव की अवगाहना उत्पत्ति की अपेक्षा जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग होती है। 27 27

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